॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१२. चाणक को अंग*
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*इन्दव छन्द*
*आसन मारि संवारि जटा नख,*
*उज्जल अंग बिभूति चढ़ाई ।*
*या हमकौं कछु देइ दया करि,*
*घेरि रहै बहु लोग लुगाई ॥*
*कोउक उत्तम भोजन ल्यावत,*
*कोउक ल्यावत पांन मिठाई ।*
*सुन्दर लै करि जात भयौ सब,*
*मूरख लोगन या सिधि पाई ॥८॥*
*कपटवेषधारी साधक* : पद्मासन लगाकर, शरीर को स्वच्छ कर, सभी अंगों में श्वेत भस्म रमा कर अपने शरीर का ऐसा प्रदर्शन करे -
कि कोई द्रष्टा उससे प्रभावित होकर उस से आशा कर बैठे कि यह हमको कुछ आशीर्वाद देगा तथा उसके चारों ओर विशाल श्रद्धालु जनसमूह इसी निमित्त बैठने लगे ।
वहाँ उसके लिये कोई उत्तम भोजन लाता है, कोई रुचकर मिष्ठान्न लाता है ।
उधर वह धूर्त साधक कुछ समय बाद वह भेंट का समान लेकर वहाँ से चम्पत हो जाता है । महाराज *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इन मूर्ख साधकों ने जनता को ठगने की यही सिद्धि प्राप्त की है ! ॥८॥
(क्रमशः)

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