गुरुवार, 23 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ ६

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग* 
*आप ही कै घट मैं प्रगट परमेश्वर है,*
*ताहि छोड़ि भूलै नर दूर दूर जात है ।* 
*कोई दोरै द्वारिका कौ कोई काशी जगन्नाथ,* 
*कोई दोरै मथुरा कौं हरिद्वार न्हात है ॥* 
*कोई दोरै बद्रीनाथ, विषम पहाड़ चढ़ि,* 
*कोई तो केदार जात मन मैं सिहात है ।* 
*सुन्दर कहत गुरदेव देहि दिव्य नैंन,* 
*दूरि ही कै दूरवीन निकट दिखात है ॥६॥* 
*मिथ्या साधना अज्ञानियों का कर्म* : मानव हृदय में प्रभु साक्षात(स्वयं) विराजमान है, उन्हें त्याग कर भ्रांत साधक दूर तक दौड़ लगाता है । 
कोई इसके दर्शन के लिये द्वारिका, कोई काशी, कोई जगन्नाथपुर, कोई मथुरा या हरद्वार आदि तीर्थों की यात्रा करते हैं ।१ 
(१. तुल - केई दौड़ें द्वारिका, केई कासी जांहि । 
केई मथुरा कौं चले, साहिब घट ही मांहि ॥ 
- श्री दादूवाणी ३१-८) 
कोई टेढ़े मेढ़े, ऊँचे नीचे दुर्गम पर्वतों को लांघकर बदरीनाथ एवं केदारनाथ धाम की यात्रा करते हुए अपनी क्लिष्ट साधना का अभिमान करते हैं । 
इस प्रसंग में श्री सुन्दरदास जी कथन यही है की गुरुदेव द्वारा प्राप्त दिव्यदृष्टि रूप दूरवीक्षण यन्त्र से ही दूर की वस्तु(ब्रह्मतत्व ) समीप(स्वहृदय) में देखी(साक्षात्कार की) जा सकती है ! ॥६॥ 
(क्रमशः)

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