#daduji
॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*११. मन को अंग*
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*दौरत है दस हूं दिसि कौं शठ,*
*वायु लगी तब तैं भयौ बैंडा ।*
*लाज न काज कछू नहिं राखत,*
*सील सुभाव की फौरत मैंडा ॥*
*सुन्दर सीख कहा कहि देइ,*
*भिदै नहिं बांन छिदै नहिं गैंडा ।*
*लालच लागि गयौ मन बीखरि,*
*बारह वाट अठारह पैंडा ॥१०॥*
*इसको उपदेश देना निरर्थक* : यह हमारा मूर्ख मन दसों दिशाओं में दौड़ता रहता है, और इसको जिस दुर्गुण की हवा लगती है, उधर ही झुक जाता है ।
तब इसे न शास्त्र की मर्यादा का ध्यान रहता है, न कोई लोक लज्जा ही रहती है । तथा इसका आचार विचार भी मर्यादा का उलंघन कर जाता है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इसे हम क्या शिक्षा दें ! क्या गैंडा पशु भी किसी बाण से बींधा जा सकता है ।
इस मन के, लोभ के वशीभूत हो जाने से, बारह मार्ग एवं अट्ठारह पगडंडियाँ हो गयी हैं । अर्थात् यह लालचीपन कर इन्हीं पर दौड़ता रहता है ॥१०॥
(क्रमशः)
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