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॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
॥ श्री दादूदयालवे नम: ॥
३२. मृगोक्ति उपदेश । झपताल ~
मोह्यो मृग देख वन अंधा, सूझत नहीं काल के फंधा ॥ टेक ॥
फूल्यो फिरत सकल वन मांही, सिर साधे शर सूझत नांही ॥ १ ॥
उदमद मातो वन के ठाट, छाड़ चल्यो सब बारह बाट ॥ २ ॥
फंध्यो न जानै वन के चाइ, दादू स्वाद बंधानो आइ ॥ ३ ॥
फूल्यो फिरत सकल वन मांही, सिर साधे शर सूझत नांही ॥ १ ॥
उदमद मातो वन के ठाट, छाड़ चल्यो सब बारह बाट ॥ २ ॥
फंध्यो न जानै वन के चाइ, दादू स्वाद बंधानो आइ ॥ ३ ॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, मृग के दृष्टान्त से उपदेश करते हैं कि विचाररूप नेत्रों से हीन, चैतन्य मनरूप मृग, संसार रूप वन को देखकर मृग की भाँति मोहित हो रहा है, परन्तु इसको काल के रचे हुए नाना प्रकार के विषय - वासना रूपी फंदे नहीं सूझते हैं । इस संसार रूपी वन में माया की चहल - पहल देखकर मृग की भाँति प्रसन्न होकर विचर रहा है और इसको काल रूपी शिकारी का बाण नहीं दीखता है । संसार रूपी वन के ठाठ - बाट अर्थात् स्त्री, पुत्र, धन आदि को देखकर उन्मत्त हो रहा है । किन्तु अन्त में इन सबको छोड़कर जाता है । स्वादों के बन्धन में पड़कर यह नहीं जानता कि मैं यमराज के फन्दों में फंस गया हूँ, फिर भी संसार में नाना प्रकार की वासनाओं में ही रत्त रहता है । इस प्रकार या बारहबाट होकर निराश ही चला जाता है ।
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