बुधवार, 22 अक्टूबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ ५

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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग* 
*मेघ सहै शीत सहै, शीश परि घांम सहै,*
*कठिन तपस्या करि, कंद मूल खात है ।* 
*जोग करै जज्ञ करै, तीरथ ऊ ब्रत करै,* 
*पुन्य नाना विधि करै, मन मैं सिहात है ॥* 
*और देवी देवता, उपासना अनेक करै,* 
*आंबन की हौंस, कैसे आकडोडे जात है ।* 
*सुन्दर कहत एक, रवि के प्रकास बिन,* 
*जैंगनैं की ज्योति, कहा रजनी बिलात है ॥५॥* 
वह वर्षा, सर्दी, गर्मी सहते हुए कठिन तपस्या कर कन्द - मूल फल के सहारे जीता है । 
इसी तरह योग, यज्ञ, तीर्थयात्रा एवं अन्य पुण्यप्रद व्रत नियमों का पालन करता हुआ अपने मन में अभिमान(= सिहात) करता है की वह बहुत बड़ा साधक हो गया है । 
इसी क्रम में वह अन्य देवी देवताओं की उपासना करता है । परन्तु उसकी इन सब क्रियाओं का फल वही होता है जैसे किसी आम्रफल के चाहने वाले को आक(मदार) के डोडे(पुष्पगुच्छ) ही प्राप्त हो । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे पुरुष साधक का अज्ञान तब तक दूर नहीं हो सकता, जब तक कि उसको ब्रह्मज्ञान का साक्षात्कार न हो जाय । 
क्या कभी सूर्य के प्रकाश बिना रात्रि का गहन अन्धकार जुगनूँ के टिमटिमाते प्रकाश से दूर हुआ है ! ॥५॥ 
(क्रमशः)

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