सोमवार, 10 नवंबर 2014

= “च. विं. त.” ३/४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“चतुर्विंशति तरंग” ३/४)*
*अगले बरसी की तैयारी ~* 
जैमल मोहनदास दमोदर, 
बात विचार कही जगन्नाथा । 
स्वामि को आप रच्चो जु सम्मेलन, 
साधुन माँहिं लियो यश हाथा । 
संत अनन्त चहूं दिशि आवत, 
दीन दयालुहिं नाम विख्याता । 
सादर प्रेम करो सब सन्तन, 
जाँ विधि आवत हैं इत ताता ॥३॥ 
जैमल, मोहनदास, दामोदर और जगन्नाथजी ने गरीबदास जी के साथ बैठकर विचार विमर्श किया कि - गुरुदेव श्री दादूजी के निर्वाण महोत्सव के अवसर पर समागत साधु संतों का आदर सत्कार बहुत प्रेम से करना चाहिये, इससे यश शोभा के साथ-साथ पुण्यलाभ भी मिलेगा । यह महोत्सव श्री दादूजी के विख्यात नाम के अनुसार तद्नुरूप ही होना चाहिये । अनन्त संतों की भीड़ इस सम्मेलन में आवेगी ॥३॥ 
*अंतरध्यान मुख्य तिथि ~* 
दुस्तर काज रच्यो बहुते कर, 
दासगरीब कहे सुन बीरा । 
आपनु कारज आप करे हरि, 
यों कहि ताहिं बंधावत धीरा । 
पूरणिमा सुदि ज्येठ शनैश्‍चर, 
मुख्य तिथी लिख भेजन चीरा । 
आवत संत चहूं दिशि तै चल, 
होत सबै पुर पंथहिं भीरा ॥४॥ 
तब गरीबदास जी बोले - हे गुरुभाईयों ! संत महोत्सव का यह कार्य तो बहुत दुस्तर रच दिया गया है । अब श्रीहरि ही इसे सफल संपूर्ण करेंगे । सब कार्यों के कर्ता धर्ता तो ईश्‍वर हैं, अत: वे ही अपना कार्य पूर्ण करेंगे । इस तरह धैर्य बंधाकर ज्येष्ठ शुक्ला पूर्णिमा शनिवार का दिवस संत सम्मेलन के लिये निश्‍चित किया गया । निमंत्रण पत्रों से सूचना पाकर अनेक साधु संत चारों दिशाओं से आने लगे । नारायणपुर में भक्त संत सेवकों की भारी भीड़ एकत्र हो गई ॥४॥ 
(क्रमशः)

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