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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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४३. उपदेश । पंजाबी त्रिताल ~
इत घर चोर न मूसै कोई,
अंतर है जे जानै सोई ॥टेक॥
जागहु रे जन तत्त न जाइ,
जागत है सो रह्या समाइ ॥१॥
जतन जतन कर राखहु सार,
तस्कर उपजै कौन विचार ॥२॥
इब कर दादू जाणैं जे,
तो साहिब शरणागति ले ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव अब जीवों के कल्याणार्थ उपदेश करते हैं कि हे भाई ! जो शरीर के भीतर आत्मस्वरूप ब्रह्म है, उसको जो जानते हैं, उनके अन्तःकरण रूपी घर में काम, क्रोध आदि चोर, ज्ञान रूप धन को नहीं चुरा पाते ।
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हे मनुष्यों ! मोह रूप निद्रा से जागो, जिससे ज्ञान रूप सार आनन्द - सुख, तुम्हारे हृदय से नहीं जायेगा । जो पुरुष ज्ञानरूप जागृत अवस्था में है, वह उसी आनन्द - स्वरूप में समा कर रहता है ।
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यदि तुम भी बारम्बार प्रयत्न करके सारभूत ज्ञान की रक्षा करोगे, तो उस विचार से फिर अन्तःकरण में काम आदि चोर कैसे उत्पन्न हो सकेंगे ? अर्थात् नहीं उत्पन्न हो सकेंगे । आत्मज्ञान के रहते हुए काम आदि को उत्पन्न करने वाला कोई भी विचार हृदय मे नहीं आवेगा ।
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इस प्रकार जो आत्मा से अन्य, काम आदिकों को चोर जानकर उनको मारने में सचेत रहता है, उस पुरुष को परमेश्वर अपने स्वरूप में अभेद कर लेता है ।
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इक पंडित इक हरि भक्त,
दोउ जन बैठे तीर ।
मृतक इक आवत बह्यो,
सन्मुख सरिता नीर ॥४३॥
शब्द सियाली तहाँ करै,
डांग लाल हैं चार ।
कोइ ले भख मोहि दे,
समझै शब्द विचार ॥
साधु सुरति गह अगम की,
हरि में रहे समाइ ।
पंडित प्रवृत्ति आस धर,
जल में बैठ्यो धाई ॥
राम नाम मुख आन दुःख,
कोई न जाणै तास ।
चित्त भ्रम छले अनेक नर,
सु कहि जगजीवनदास ॥
जो सुख चाहै राम तजि,
सो सुख दुख की रास ।
कहि जगजीवन वासना,
कर्म काम की पास ॥
रवि दीपक ज्यूं जन रहै,
परम पुरुष की आस ।
अविगत आज्ञा सोइ सत्य,
सु कहि जगजीवनदास ॥४३॥
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