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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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४५. गर्व हानिकर । पंचम ताल ~
गर्व न कीजिये रे, गर्वै होइ विनाश ।
गर्वै गोविन्द ना मिलै, गर्वै नरक निवास ॥टेक॥
गर्वै रसातल जाइये, गर्वै घोर अन्धार ।
गर्वै भौ - जल डूबिये, गर्वै वार न पार ॥१॥
गर्वै पार न पाइये, गर्वै जमपुर जाइ ।
गर्वै को छूटै नहीं, गर्वै बँधे आइ ॥२॥
गर्वै भाव न ऊपजै, गर्वै भक्ति न होइ ।
गर्वै पिव क्यों पाइये, गर्वै करै जनि कोइ ॥३॥
गर्वै बहुत विनाश है, गर्वै बहुत विकार ।
दादू गर्व न कीजिये, सन्मुख सिरजनहार ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव गर्व को हानिकारक बता कर उसके त्यागने का उपदेश कर रहे हैं कि हे जीवो ! गर्व नहीं करना, क्योंकि गर्व करने से विनाश हो जाता है । गर्व करने वाले को गोविन्द भगवान की कभी भी प्राप्ति नहीं होती है । गर्व करने वाले का नरक में वास होता है ।
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गर्व करने वाला अधोगति को जाता है । गर्व भयंकर अन्धकाररूप है । इसमें आसक्त हुये मनुष्य को सत्य - असत्य कुछ भी नहीं दीखता है । गर्व करने वाला संसार समुद्र में ही डूबता है अर्थात् जन्म - मरण को प्राप्त होता है ।
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गर्व करने वाला इस संसार का उरला किनारा और परला किनारा नहीं पा सकता । गर्व से यमलोक की प्राप्ति होती है । गर्व करने वाला जन्म - मरण से कभी छुटकारा नहीं पाता । गर्व करने वाला निषिद्ध कर्मों में, अर्थात् पाप कर्मों में ही बंधा रहता है ।
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गर्व करने वाले पुरुष के अन्तःकरण में परमेश्वर प्राप्ति का भाव नहीं उत्पन्न होता है । गर्व करने वाले प्राणियों से, भगवान् की निष्काम भक्ति नहीं होती । गर्व करने वालों को मुखप्रीति का विषय आत्मस्वरूप परमेश्वर की प्राप्ति नहीं होती है । इसलिये हे भाई !
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गर्व का सदैव त्याग करने से ही कल्याण होता है, क्योंकि गर्व करने से तो सब प्रकार से नाश हो जाता है । गर्व करने वालों के अन्दर तो, हर प्रकार के विकार होते हैं । इसलिये तत्ववेत्ता पुरुष कहते हैं कि हे जीवों ! गर्व नहीं करोगे, तो वह सिरजनहार परमेश्वर, तुम्हारे सन्मुख ही प्रत्यक्ष हैं ।
(क्रमशः)
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