सोमवार, 24 नवंबर 2014

= “पं. विं. त.” ३/४ =

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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पञ्चविंशति तरंग” ३/४)*
*श्री वाणी जी की कथा सत्संग ~*
बाँचत संतकथा गुरु ग्रन्थ जु, 
दास गोपाल उचार कराई ।
संत समाज सबै मंडली मिल, 
स्वामिजु संत सभा मध आई ।
होत कथा निज दोय मुहूरत, 
संत कथा करि शब्दहु गाई ।
ध्यान धरें अरु भोजन पावत, 
संत जु आसन जाय रहाई ॥३॥ 
नित्य प्रात: स्नानादि के बाद प्रथम प्रहर में श्री गुरुवाणी जी की कथा का वाचन किया जाने लगा । पुजारी गोपालदासजी संत सभा में नित्य कथा करते । स्वामी गरीबदासजी भी वाणीजी की कथा में पधारते । दो मुहूर्त तक कथा होती, पश्‍चात् कथा - प्रसंग के अनुसार भजन - शब्द गाये जाते । सभी संत गुरुदेव एवं ईश्‍वर का ध्यान स्मरण करने के पश्‍चात् भोजन प्रसाद पाते, फिर अपने आसनों पर जाकर विश्राम करते ॥३॥ 
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*सायंकाल आरती होती ~*
पाछलि याम सुसंत रु साधु जु, 
न्हावन धोवन शौच कराई ।
प्रात सु साँझ सबै मिलि गावत, 
ढोलक झांझु मंजीर बजाई ।
आरति साँझ करें मिलि गावत, 
बैठत ही पद मंगल गाई ।
आसन पे फिर जाय विराजत, 
यों निशिवासर संत रहाई ॥४॥ 
पिछले प्रहर अपराह्न में सभी संत स्नान शौचादि से निवृत्त होकर संध्या आरती में सम्मिलित होते । ढोलक झाँझ मंजीरों के साथ प्रीतिपूर्वक आरती गाते । गुरुदेव रचित निराकार परब्रह्म की आरती स्तुति गाने के पश्‍चात् एक प्रहर तक भक्ति ज्ञान वैराग्य परक भजन गाते । फिर अपने आसनों पर जाकर रात्रि विश्राम करते । इस प्रकार की दिनचर्या के साथ संत गुरुधाम में रहने लगे ॥४॥ 
यद्यपि गुरुदेव श्री दादूजी की तो पूजा - उपासना पद्धति में बाह्य सामग्री प्रपञ्चों को महत्व नहीं दिया था(इहिं विधि आरती राग की कीजे । आतम अन्तर वारणा लीजे ॥) किन्तु उस उच्चकोटि की उपासना स्थिति में साधारण साधक नहीं पहुँच सकता । प्रारंभिक उपासना - सोपान पर बाह्य उपचारों के बिना मन को ठहराना अत्यन्त कठिन है । अत: प्रारम्भिक सोपानों पर चढ़कर ही आगे बढ़ा जा सकता है । 
(क्रमशः)

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