सोमवार, 3 नवंबर 2014

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*रियां प्रसंग*
१८६.(गुजराती) तर्क चेतावनी । शूलताल
मेरा मेरा काहे को कीजे रे, जे कुछ संग न आवे ।
अनत करी नें धन धरीला रे, तेंऊ तो रीता जावे ॥टेक॥
माया बंधन अंध न चेते रे, मेर मांहिं लपटाया ।
ते जाणै हूँ यह बिलासौं, अनत विरोधे खाया ॥१॥
आप स्वारथ यह विलूधा रे, आगम मरम न जाणे ।
जम कर माथे बाण धरीला, ते तो मन ना आणे ॥२॥
मन विचारि सारी ते लीजे, तिल मांहीं तन पड़िबा ।
दादू रे तहँ तन ताड़ीजे, जेणें मारग चढ़िबा ॥३॥
रियां के ठाकुर माधवदास ने अपने कार्यकर्ता मोहनलाल को भेजकर दादूजी को पादू से रियां बुलाया था । फिर माधवदास एक दिन कु़छ जिज्ञासा से दादूजी के पास बैठे थे तब दादूजी ने उनके अधिकार के अनुसार उक्त १८६ के पद से उनको उपदेश किया था । फिर उपदेश के अनुसार ही वे ईश्वर भजन में लग गये थे । घर में जल में कमल के समान रहने लगे थे ।
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३७१. परिचय । षड्ताल
मन मोहन मेरे मन ही मांहिं, कीजै सेवा अति तहाँ ॥टेक॥
तहँ पायो देव निरंजना, परगट भयो हरि यह तना ।
नैनन ही देखूं अघाइ, प्रगट्यो है हरि मेरे भाइ ॥१॥
मोहि कर नैनन की सैन देइ, प्राण मूंसि हरि मोर लेइ ।
तब उपजै मोकौं इहै बानि, निज निरखत हूँ सारंगपानि ॥२॥
अंकुर आदैं प्रगट्यो सोइ, बैन बाण तातैं लागे मोहि ।
शरणै दादू रह्यो जाइ, हरि चरण दिखावै आप आइ ॥३॥
रियां नरेश माधवदास का कार्यकर्त्ता मोहनलाल ब्राह्मण एक दिन अवकाश प्राप्त होन पर जिज्ञासा से बैठे थे । तब दादूजी ने उनके मन की भावना जानकर उक्त ३७१ के पद से उनको उपदेश किया था । उक्त उपदेश से उनको वैराग्य हो गया । फिर गृहस्थ को त्यागकर साधु भेष धारण कर लिया और आसोप ग्राम में रहकर भजन करने लगे थे । ये दादूजी के ५२ शिष्यों में मोहन भजनीक नाम से प्रसिद्ध हैं ।

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