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*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~
स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~
संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“त्रयोविंशति तरंग” ४१/४२)*
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*श्री दादूजी की महिमा सन्तों ने रो-रो कर गाई ~*
ऐसहु संत हुयो न हुवै अब,
सात हजारहिं काटि जंजीरा ।
शीश निवावत शाह अकैंबर,
दादु दिपे जिम हेमहिं हीरा ।
पंचहिं भूत रच्चो न यहू तन,
ज्योति स्वरूपहिं भासत थीरा ।
जां विधि दास कबीर तज्यो तन,
तां विधि दादुजि लीन स्वरूप मे ॥४१॥
वे निशि वासर यही विचारते रहते कि - ऐसा संत न तो हुआ, और न होगा । उन्होंने तो अकबर बादशाह के कैदी सात हजार साधुओं की जंजीर कटवा दी थी । अकबर जैसा कट्टर धर्मावलम्बी भी जिनके तप: प्रभाव के आगे नतमस्तक हो गया । श्री दादूजी तो हेमरूपी संतों के बीच हीरे के समान थे । उनका स्वरूप मात्र पंच भौतिक नहीं था, वह तो ज्योति रूप केवल भासित होता था । श्री दादूजी ने कबीर जी के समान अपना स्वरूप परम ज्योति में विलीन कर दिया ॥४१॥
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*सलेमबाद में परसूराम जी ~*
संत सलेमाबाद, लखी गति,
होवत परशुराम उदासी ।
म्हंत कहें सिद्धराज तज्यो तन,
दादु दयालु मिले अविनाशी ।
संत कहें वह पंथ जुदे मत,
तो किम होवहिं चित्त उदासी ।
म्हंत कहें हम नाहिं जुदे कछु,
भीतर साधन एक उपासी ॥४२॥
सलेमाबाद के संत परशुरामजी ने जब भी दादुजी के ब्रह्मलीन होने का समाचार सुना तो उदास हो गये, और बोले सिद्धराज दादूजी अविनाशी ब्रह्म में लीन हो गये । तब उनके अनुयायी सम्प्रदायी बोले कि - श्री दादूजी तो अपने से भिन्न मतावलम्बी थे, उनके लिये सोच विचार क्यों करते है । उत्तर में परशुराम जी ने कहा - हम संतों की साधन धारा तथा लक्ष्य भीतर से एक ही होता है ॥४२॥
(क्रमशः)

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