शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

*ईडवा प्रसंग*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*ईडवा प्रसंग*
*सूखा सहजैं कीजिये, नीला भाने नांहिं ।*
*काहे को दुःख दीजिये, साहिब है सब मांहि ॥*
(दया निर्वैरता अंग २९)
दादूजी जब ईडवा में निवास करते थे तब एक दिन प्रातःकाल ही कान्हड़जी भूतड़ा दादूजी के दर्शनार्थ तालाब के तट पर भजन शाल पर पहुंचे और एक इमली का हरा दांतुन भी दादूजी के लिये तोड़ ले गये थे, वह दादूजी के आगे रक्खा । दादूजी ने कहा - यह क्यों लाये हो ? कान्हड़ जी ने कहा - आपके लिये दांतुन लाया हूँ, तब दादूजी ने उक्त १९ की साखी कही थी । फिर तोड़े हुये को सफल तो बनाना ही चाहिये । अतः उस दांतुन को करके भूमि में रोप दिया था, उसकी इमली अद्यापि वहां है ।
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३७ एकताल
मन मूरखा, तैं क्या किया ? कुछ पीव कारण वैराग न लिया,
रे तैं जप तप साधी क्या दिया ॥टेक॥
रे तैं करवत काशी कद सह्या, रे तूँ गंगा मांहीं ना बह्या,
रे तैं विरहनी ज्यों दुख ना सह्या ॥१॥
रे तैं पालै पर्वत ना गल्या, रे तैं आप ही आपा ना दह्या,
रे तैं पीव पुकारी कद कह्या ॥२॥
होइ प्यासे हरि जल ना पिया, रे तूँ वज्र न फाटो रे हिया ।
धिक् जीवन दादू ये जिया ॥३॥
ईडवा में एक दिन नरवद दादूजी के सामने हाथ जोड़े हुये कु़छ जिज्ञासा से बैठे थे । तब दादूजी ने उनको उक्त ३७ के पद से उपदेश दिया था । उक्त उपदेश को सुनने से नरवद का जीवन ही बदल गया था फिर वे राजकाज को त्यागकर भजन ही करते थे ।
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७१. परिचय सत्संग । पंजाबी त्रिताल
अब तो ऐसी बन आई, राम - चरण बिन रह्यो न जाई ॥टेक॥
साँई को मिलबे के कारण, त्रिकुटी संगम नीर नहाई ।
चरण - कमल की तहँ ल्यौ लागै, जतन जतन कर प्रीति बनाई ॥१॥
जे रस भीना छावर जावै, सुन्दरी सहजैं संग समाई ।
अनहद बाजे बाजन लागे, जिह्वाहीणैं कीरति गाई ॥२॥
कहा कहूँ कुछ वरणि न जाई, अविगति अंतर ज्योति जगाई ।
दादू उनको मरम न जानै, आप सुरंगे बैन बजाई ॥३॥
ईडवा में एक दिन कुंभरायमल दादूजी के पास कु़छ जिज्ञासा से बैठे थे । तब दादूजी ने उनके मन की स्थिति जानकर उक्त ७१ के पद से उपदेश किया था ।
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७४. परिचय । कहरवा
जब घट परगट राम मिले ।
आत्म मंगलाचार चहुँ दिशि, जन्म सुफल कर जीत चले ॥टेक॥
भक्ति मुक्ति अभय कर राखे, सकल शिरोमणि आप किये ।
निर्गुण राम निरंजन आपै, अजरावर उर लाइ लिये ॥१॥
अपने अंग संग कर राखे, निर्भय नाम निशान बजावा ।
अविगत नाथ अमर अविनाशी, परम पुरुष निज सो पावा ॥२॥
सोई बड़भागी सदा सुहागी, परगट प्रीतम संग भये ।
दादू भाग बड़े वर वर कर, सो अजरावर जीत गये ॥३॥
आतम मंगल चार चहूं दिशि, जनम सफल कर जीत चले ॥
ईडवा में एक दिन दूजनजी कु़छ जिज्ञासा से दादूजी के सामने बैठे थे तब दादूजी ने उनको उक्त ७४ के पद से उपदेश किया था ।

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