सोमवार, 10 नवंबर 2014

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*#श्रीदादूदयालवाणी०आत्मदर्शन* द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग गौड़ी १(गायन समय दिन ३ से ६)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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४४. उपदेश चेतावनी । पंचम ताल ~
मेरी मेरी करत जग खीना, 
देखत ही चल जावै ।
काम क्रोध तृष्णा तन जालै, 
तातैं पार न पावै ॥टेक॥
मूरख ममता जन्म गमावै, 
भूल रहे इहिं बाजी ।
बाजीगर को जानत नांही, 
जन्म गंवावै वादी ॥१॥
प्रपंच पंच करै बहुतेरा, 
काल कुटुम्ब के तांई ।
विषै के स्वाद सबै ये लागे, 
तातैं चीन्हत नांही ॥२॥
येता जिय में जानत नांहीं, 
आइ कहाँ चल जावै ।
आगे पीछे समझै नांहीं, 
मूरख यूं डहकावै ॥३॥
ये सब भ्रम भान भल पावै, 
शोध लेहु सो साँई ।
सोई एक तुम्हारा साजन, 
दादू दूसर नांही ॥४॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव उपदेश द्वारा चेत कराते हैं कि संसार के प्राणी यह स्त्री मेरी है, यह धन दौलत सम्पत्ति सब मेरी है, ऐसे मेरी - मेरी करते - करते ही क्षीण होते जा रहे हैं और यह काम, क्रोध, तृष्णा रूप अग्नि शरीर को जला रही है । इसी से अज्ञानी प्राणी संसार का पार नहीं पाते । 
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ऐसे मूर्ख, ममता मोह में बँधकर मनुष्य जन्म को वृथा ही गँवा रहे हैं । इस संसार रूप माया की रचना को देखकर परमात्मा को भूल रहे हैं । वे परमेश्‍वर रूप बाजीगर को नहीं जानते । वे अपने मनुष्य - जन्म को निर्थरक ही गमाते रहते हैं । 
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पाँच ज्ञान - इन्द्रियों के विषयों में फँसकर नाना प्रकार के भोगों की वासना से झूठ - कपट के काम करते हैं । अथवा अपने इस कालरूप कुटुम्ब के लिये अनेक प्रकार के शुभ अशुभ कर्म करते हैं, परन्तु ये सब स्वाद तो विष रूप हैं, इस बात को अज्ञानी जीव नहीं समझता । 
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मैं कहाँ से आया हूँ, और कहाँ जाऊंगा ? भूतकाल के जन्म और कर्मों को तथा भविष्यकाल में होने वाले कार्य को नहीं समझता है । इस प्रकार परमेश्‍वर से विमुखी मूर्ख बहक रहा है । इस सब भ्रम को तत्व ज्ञान से नाश करे, तो परमेश्‍वर को प्राप्त होवे । 
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इस प्रकार अपने स्वामी परमेश्‍वर को विचार द्वारा ढूँढ ले । हे जीव ! वह एक परमेश्‍वर ही तेरा साजन कहिए मित्र है । और दूसरा माया और माया कृत कार्य, सब तेरे अहितैषी है । जो घर - घर में ‘मेरे - तेरे’ की भ्रान्ति है, उसे त्याग कर सब घटों में उस आत्म - स्वरूप परमात्मा को ही देख । वह सर्वव्यापी प्रियतम परमात्मा ही सब में आत्मभाव से विराजमान है, अन्य कोई दूसरा नहीं ।

दोहा ~ “बाघ वृषभ दो एकठे, आलोकित आनन्द ।
सामिल तिन्हें चराइया, बाबा तेजानन्द ॥४४॥”
(क्रमशः)

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