मंगलवार, 4 नवंबर 2014

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#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
५३. हैरान प्रश्न । वर्ण भिन्न ताल
कादिर कुदरत लखी न जाइ, 
कहाँ तैं उपजै कहाँ समाइ ॥टेक॥ 
कहाँ तैं कीन्ह पवन अरु पानी, 
धरणि गगन गति जाइ न जानी ॥१॥ 
कहाँ तैं काया प्राण प्रकासा, 
कहाँ पंच मिल एक निवासा ॥२॥ 
कहाँ तैं एक अनेक दिखावा, 
कहाँ तैं सकल एक ह्वै आवा ॥३॥ 
दादू कुदरत बहु हैरानां, 
कहाँ तैं राख रहे रहमाना ॥४॥ 
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव आश्चर्य - युक्त प्रश्न कर रहे हैं परमेश्वर से, कि हे परमेश्वर ! आपकी समर्थाई रूप शक्ति जानी नहीं जाती है । हे प्रभु ! यह संसार आप कहाँ से उत्पन्न करते हो और फिर यह कहाँ समा जाता है ? और यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी कहाँ से उत्पन्न किये हैं । आपकी शक्ति जानी नहीं जाती है । फिर आपने यह शरीर रचकर प्राणों के द्वारा, कहाँ से चेतन किया है ? और फिर कैसे पांच ज्ञानेन्द्रियाँ एक शरीर में निवास करती हैं ? आप अपने एक स्वरूप से अनेक जीव प्रकट करके कैसे दिखाते हो ? और फिर प्रलयकाल में सब एक किस प्रकार हो जाते हैं ? हे दयालु ईश्वर ! आप सबकी रक्षा करते हुए भी, फिर निर्विकार रूप होकर, कैसे रहते हो ? यह आपकी माया बड़ी ही आश्चर्यरूप दिखाई पड़ती है ।
साखी उत्तर की ~
रहै नियारा सब करै, काहू लिप्त न होइ ।
आदि अंत भानै घड़ै, ऐसा समर्थ सोइ ॥१॥ 
श्रम नहीं सब कुछ करै, यों कल धरी बनाइ ।
कौतिकहारा ह्वै रह्या, सब कुछ होता जाइ ॥२॥ 
दादू शब्दैं बँध्या सब रहै, शब्दैं ही सब जाइ ।
शब्दैं ही सब ऊपजै, शब्दैं सबै समाइ ॥३॥ 
चित्र सौजन्य ~ मुक्ता अरोरा

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