#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
अम्ह घर पाहुणां ये, आव्या आतम राम ॥टेक॥
चहुँ दिशि मंगलाचार, आनन्द अति घणा ये ।
वरत्या जै जैकार, विरुद वधावणां ये ॥१॥
कनक कलश रस मांहिं, सखी भर ल्यावज्यो ये ।
आनन्द अंग न माइ, अम्हारे आवज्यो ये ॥२॥
भावै भक्ति अपार, सेवा कीजिये ये ।
सन्मुख सिरजनहार, सदा सुख लीजिये ये ॥३॥
धन्य अम्हारा भाग, आव्या अम्ह भणी ये ।
दादू सेज सुहाग, तूँ त्रिभुवन धणी ये ॥४॥
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सर्वज्ञ शङ्करेन्द्र ~ !! श्री भगवान् भाष्यकार चरणकमलेभ्यो नमो नमः !!
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“धन्यता {कृत - कृत्यता} का बोध” {२} :
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नारायण ! उसके बाद तैयारी होती है । तैयारी किस चीज की होती है ? शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान, श्रद्धा ये सारी "दहेज" की तैयारियाँ हैं । यहाँ भी दहेज देना पड़ेगा, जैसे आप कई चीजें दहेज में देते हैं, फर्नीचर, गहने इत्यादि, वैसे ही यहाँ शम अर्थात् मन के अन्दर किसी प्रकार के विक्षेप का अभाव, यह बुद्धि को दहेज में देना पड़ेगा । दम अर्थात् इन्द्रियों को शान्त करना पड़ेगा ।
दहेज ठीक न हो तो तय हुई बात भी गड़बड़ हो जाती है ! लड़की को लड़का और लड़के को लड़की पसंद आ गई, फिर लड़के के माँ - बाप कहते हैं कि बारात तीन सौ की आयेगी, लड़की का बाप कहता है "पचास लाना", तो लड़के वाले ढीले पड़ जाते हैं । फिर लड़के वाला कहता है "मेरे को टेलीविज़न सैट चाहिये", लड़की वाला कहता है कि "मैंने तो और चीज़ें तैयार कर रखी है"; वह कहता है "मुझे और कुछ नहीं चाहिये ।"
वह पिता बेचारा ब्राह्मण, उसे क्या पता कि यह भी मागेंगे ! इसलिये उसने अपने यजमानों से इस निमित्त से छोटी - मोटी चीजें अलग - अलग ला रखी हैं । अब काम ढीला पड़ जाता है। ऐसे ही हमारी बुद्धि कन्या को परमात्मा पतिरूप से जँच भी गया , बुद्धि को समझ में भी आ गया कि जाना तो इसी तरफ है, संदेह कुछ नहीं है, लेकिन यदि शम, दम आदि का दहेज नहीं है तो लड़का नहीं मानता ! कहता है "पहले दहेज इकट्ठा कर लो अब आगे बात चलेगी ।" इसलिये श्रुतिभगवती ने इसे “वित्त” कहा है। दहेज की सारी चीजें धन ही हैं । लौकिक धन से तो वह खुश होने वाला नहीं है, क्योंकि उसकी जाति चेतन अर्थात् आत्मा है । वह चेतन आपके जड़ चीजों से खुश कभी नहीं होगा ।
आप का मन भी शान्त हो गया, इन्द्रियाँ भी चंचल नहीं रहीं । विषय सामने आने पर भी प्रारब्ध के कारण जब उनका भोग भी हो रहा हो, उस समय में भी, उनमें रति नहीं होती; दुःख आने पर, दुःख का भोग होने पर भी उससे छूटने की इच्छा नहीं होती; यह तितिक्षा है । समाधि का अभ्यास बना हुआ है । जैसे साधारण आदमी थोड़ी असवधानी की तो फिसल कर गिरता है, ऐसे ही जहाँ मन थोड़ा इधर - उधर हृ तो मुमुक्षु झट समाधि में जाता है । गुरु और वेदान्त वाक्य पर दृढ़ विश्वास है, यह श्रद्धा हुई ।
“गुरुवेदान्तवाक्येषु बुद्धिर्या निश्चयात्मिका ।
सत्यमित्येव सा श्रद्धा निदानं मुक्तिसिद्धये ॥”
{आचार्य शंकर}
नारायण ! जब यह सब उसे प्राप्त हो गया, तब दहेज का इन्तजाम हो गया । बारात आई, विवाह किया । विवाह करके बारात विदा हो गई ।
नारायण ! "आत्मनि एव आत्मानं पश्येत्" अब वह निरन्तर आत्मचिन्तन में लगा हुआ है । साल भर तक वह बुद्धि परमात्मा के साथ रही अर्थात् कुछ समय तक रही । उस समय उसको अभी संसार की तरफ का कुछ ख्याल नहीं कि क्या हाल है, समाधि काल में पता नहीं लगता । परमात्म - चिन्तन में जीव को बुद्धि के हाल का कुछ पता नहीं, क्योंकि वह लीन हुई है । इसीलिये कहते है कहते हैं "न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा ।" तदा अर्थात् उस काल में वाणी कुछ नहीं कह सकती । जब उसके अन्दर आनन्द भोग करने के बाद बुद्धि वापिस आई तो क्या करती है ?
"मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥"
{श्रीमद्भगवद्गीता १०/९}
बुद्धि को वहाँ सुख की प्राप्ति हुई यह देखने माँ - बाप नहीं जा सकते । जब वापिस आकर उसका चित्त बार - बार करता है कि अब भेज दो, हर चीज उसे वहाँ की प्रिय लगती है, जब बात करती है, वहीं की बात करती है, वहीं की विशेषतायें बताती है, तब जीव को संतोष हो जाता है कि कृत - कृत्य हो गया । अब वह जीव के संसार की कोई तारीफ नहीं करती । समझ कर कहिये भी कि कुछ तो बाप के घर की चीज अच्छी होगी ? कहती है "हाँ पिता जी ! आप बहुत अच्छे हैं, नहीं तो अच्छे घर ब्याह कैसे होता ? लेकिन आपकी प्रशंसा इस बात में है कि आपने मुझे वहाँ भेज दिया ।" इसी प्रकार जीवभाव को बुद्धि कहती है कि बड़ा अच्छा किया, वहाँ मुझे भेज दिया ।" यही जीव की विशेषता है । जब यह कृत - कृत्यता का बोध होता है तब जीव धन्य है, उसके पहले धन्य नहीं है । धन्यता मायने कृत - कृत - कृत्यता अर्थात् जो करने लायक काम था वह कर दिया । जिस प्रकार बारात बिदा करके बारह आना संतोष हुआ, वैसे ही नित्य निरन्तर परमात्म - अनुसंधान में लग गये तब बारह आना संतोष हो गया, जब उसके बाद बुद्धि निरन्तर उसी की प्रशंसा करे, तब समझना चाहिये कि अब अन्तिम चीज "अवसादन" की है । अब अपनी उस बुद्धि में सिवाय उस परमात्मा के और किसी चीज की बात निकलती ही नहीं है, बुद्धि सर्वथा वहाँ जाकर लीन हो गई । अवसादन की यह तीसरी कृत - कृत्यता की है । इसी के द्वारा भजन संभव है। नतीजा यह होता है कि मन के गहनतम {वसुतम} तत्त्व अब बाहर आ गये । मन के अन्दर जितने खजाने भरे हुए हैं, वे सारे खजाने रोकने वाला कौन है ? तनाव ही रोकने वाला है । "प्रेय और श्रेय का जो झगड़ा है, इस कारण ही ये सारे खजाने हमारे हाथ नहीं लगते ।" जब ये तनाव खुल जाते हैं तब मन की सारी शक्तियाँ सृजन के लिये उपलब्ध हो जाती है ।
नारायण ! हमारी इस समय की सारी अर्थव्यवस्था की गड़बड़ी का मूल कारण क्या है ? किसी भी चीज में तेजी नहीं है । एक - दूसरे पर अविश्वास के कारण सारा काम अटका हुआ है । व्यापारी और सरकार का आपस में अविश्वास है; सरकार सोचती है कि व्यापारियों को छूट देंगे तो ये मार डालेंगे। व्यापारी सोचता है कि सरकार की बात मानेंगे तो यह मार डालेगी । व्यापारी और मजदूर का आपस में अविश्वास है । सब एक - दूसरे से सावधान हैं, तनाव में हैं । सरकारों का फिर आपस में तनाव । प्रान्तीय सरकार सोचती है कि केन्द्र हमको खा न ले, केन्द्र सोचता है कि हमको कहीं प्रान्तीय सरकारें न खा लें । फिर प्रान्तीय सरकारों का आपस में तनाव । मन्त्री सोचता है कि कि कहीं सचिव फायदा न उठा ले जायें और सचिव सोचते हैं कि कहीं मन्त्री फायदा न उठा ले जायें । ऊपर से नीचे तक कोई कार्य ऐसा नहीं जिसे करने में किसी को छूट हो । यह सारा प्रकार अंग्रेजों ने बनाया था, क्योंकि विदेशी राज्य को हमारी उन्नति तो करनी नहीं होती है, हमारा विश्वास नहीं कर पाते, इसलिये नियम बनाते हैं कि हर चीज उनके हाथ से निकले जिसमें कहीं प्रशासित लोग कुछ कर न लें। आज तक हम वास्तविक स्वतन्त्र नहीं हुए हैं । वास्तविक स्वतन्त्र हुए होते तो हमको एक - दूसरे पर विश्वास होता । सरकार समझती कि ये व्यापारी स्वतन्त्र हैं तो कुछ काम करेंगे । यह नहीं कि हर छोटे से काम के लिए पहले सरकार लाइसेन्स थे, नहीं तो व्यापारी जरूर खा जायेगा । सरकार की यही मान्यता है, कि "हम देश को बचा कर रख रहे हैं, नहीं तो व्यापारी खा जाते ।" व्यापारी कहता है कि "हम किसी तरह उद्योग को बचा कर रख रहे हैं नहीं तो मजदूर खा जाते ।" सरकार के अफसर कहते हैं कि "हम बचा कर रख रहे हैं नहीं तो मन्त्री राजनीतिज्ञ खा जाते ।" राजनितिज्ञ कहते हैं कि "सरकारी अफसर खा जाते, हम बचाकर रख रहे हैं" इसका मतलब है कि सब मानते हैं कि देश हम सबका नहीं है । स्वतन्त्र देश की विचारधारा यह नहीं होती, यह परतंत्र देश की विचारधारा है । स्वतन्त्र देश की विचारधारा होती है कि देश हम सबका है, कोई क्यों खायेगा ? यह सोचने का एक तरीका है । जहाँ यह विश्वास की बात आई, वहाँ आप देखेंगे कि उन्नती की गति इतनी तीव्र हो जायेगी कि जिसका कोई ठीकाना नहीं है । एक नियम याद रखें । घर में आप बेटे को स्वतन्त्रता देकर देखें कि "यह दुकान तेरी है , ये ले पचास हजार और तू दुकान चला ।" आप पायेंगे कि लड़का रात को नौ बजे तक काम करेगा । और आप लड़के से कहें कि "बेटा, कोई भी काम मेरे से पूछकर करना, चेक पर मेरे दस्कखत चलेंगे , तू गड़बड़ कर जायेगा ।" आप देखेंगे कि आपका लड़का पाँच बजे से ही घूमने - फिरने को सोचने लगेगा, थोड़ा सा जीकाम हो गया तो कहेगा कि आज दुकान नहीं आ सकता । कारण यह है कि जब आप सारा नियन्त्रण हाथ में रखेंगे तो वह बेचारा नौकर हुआ, परतन्त्र हृ। परतन्त्र का तो काम ही हृ कि जितना कम कर सको, करो, जितना फायदा उठा सको, उठाओ । जब आपने उसे स्वतन्त्र कर दिया, मालिक बना दिया, तब कहेगा कि मालीक हूँ, ज्यादा - से - ज्यादा काम करूँ । काम करवाने का तरीका ही किसी को स्वतन्त्र बनाना है ।
नारायण ! जैसे सारे राष्ट्र की प्रगति का कारण हमारा एक - दूसरे को स्वतन्त्र बनाने का प्रयत्न करना है, एक - दूसरे को परतन्त्र बनाने का प्रयत्न करने से राष्ट्र की प्रगति में रुकावट आती है, उसी प्रकार से अभी हमारा मन श्रेय और प्रेय के चक्कर में परतन्त्र बना हुआ है । इसलिये हम मन के द्वारा पूरा कार्य नहीं कर पाते है । हमारी करने की इच्छा तो होती है लेकिन कर नहीं पाते । इसको हमने मालिक नहीं बनाया है। जब यह "अद्वैत ज्ञान" पूर्ण रूप से हो जाता है, परमात्म - प्राप्ति हो जाती है, तब वह प्रेय और श्रेय का एक - दूसरे का अविश्वास, जिसे "इड" और "सुपर ईगो", ऊर्ध्वचेतना और अधश्चेतना अथवा क्या कल्याणकारी है और क्या अच्छा लगता है जो हमने पूर्व में कहा था, इनका झगड़ा समाप्त हो जाता है । इस झगड़े से ही हमारे मन की सामर्थ्य रुकावट अनुभव करती है, हम कुछ नहीं कर पाते । प्रेय का काम करने जाते हैं तो श्रेय आकर रुकावट डालता है कि "ऐसा करूँगा तो कहीं औचित्य में गड़बड़ी तो नहीं हो जायेगी ।" श्रेय का काम करते है तो प्रेय रुकावट डालता है कि "कहीं ऐसा करने से हमारे प्रेय का कुछ नुक्सान तो नहीं हो जायेगा ?" घूस खाते समय सोचता है कि नरक के डण्डे न पड़ें और घूस छोड़ते समय सोचता है कि कहीं भूखा न मरना पड़े । अब ये "वसुतम तत्त्व" खुल गये, क्योंकि श्रेय ही अब प्रेय बन गया, दोनो का झगड़ा अब नहीं रहा । अब पता लग गया कि मैं जिसको प्रेय समझता था, वह वस्तुतः प्रेय नहीं है, श्रेय ही प्रेय है । जैसे ही यह पूर्ण विश्वास हो गया, मन की सारी स्वतन्त्र शक्तियां खुल गई । उसके खुलने के बाद मनुष्य अतितीव्र वेग से कार्य कर पाता है । आत्मज्ञानी की क्रियाशक्ति इसलिये बहुत बढ़ जाती है । साधारण व्यक्ति जिस क्रिया को दस घंटे में करेगा, उसको वह दस मिनट में कर लेगा । यह शक्ति किससे आती है ? यह जो मन के तनाव खुल गये, बस उसी से शक्ति आ गयी, बाहर से कुछ नहीं आना है । यह तो अन्दर भरा हुआ है । लेकिन आपस में श्रेय और प्रेय की रुकावट के कारण उन्नति नहीं बन पा रही थी । अब "वसुतम तत्त्व" अर्थात् गहनतम तत्त्व, मन के तत्त्व जिनमें खजाना भरा हुआ है, खुल गये । अणिमा, महिमा आदि सिद्धिया तो बड़ी साधारण हैं, वे सारे चेतना की रोशनी में आ जाते हैं ।
सावशेष ......
नारायण स्मृतिः
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