मंगलवार, 11 नवंबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ २३

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग*
*काहे कौं तूं नर भेख बनावत,*
*काहे कौ तूं दस हूं दिसि डूलै ।* 
*काहे कौ तूं तन कष्ट करै अति,*
*काहे कौ तूं मुख तैं कहि फूलै ॥* 
*काहै कौ और उपाइ करै अब,*
*आंन क्रिया करिकैं मति भूलै ।* 
*सुन्दर एक भजै भगवंत हि,*
*तौ सुखसागर मैं नित झूलै ॥२३॥* 
॥ इति चाणक को अंग ॥
*महात्मा का हितकर उपदेश* : रे नर ! तूँ क्यों नाना प्रकार के भेष धारण कर रहा है ? क्योंकि तूँ तीर्थयात्रादि के व्याज से दशों दिशाओं में दौड़ लगा रहा है ? 
तूँ क्यों इस कठोर तपश्चर्या में लगना चाह रहा है ? तूँ क्यों सर्वत्र अपने मुख से अपनी बड़ाई(आत्मप्रशंसा) कर रहा है ? 
तूँ अपने सुख के लिये क्यों इन लौकिक क्रियाओं में बहक रहा है ? 
महराज *श्री सुन्दरदास जी* का यही उपदेश है कि यदि तूँ वस्तुतः ऐकान्तिक सुख चाहता है तो एकान्ततः प्रभुजन में मन लगा, तभी तूँ प्रसन्नतापूर्वक सुखसागर में झूला झूल सकता है ॥२३॥ 
॥ चाणक का अंग सम्पन्न ॥१२॥ 
(क्रमशः)

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