#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सतगुरु चरणां मस्तक धरणां,
राम नाम कहि दुस्तर तिरणां ॥टेक॥
अठ सिधि नव निधि सहजैं पावै,
अमर अभै पद सुख में आवै ॥१॥
भक्ति मुक्ति बैकुंठा जाइ,
अमर लोक फल लेवै आइ ॥२॥
परम पदारथ मंगल चार,
साहिब के सब भरे भंडार ॥३॥
नूर तेज है ज्योति अपार,
दादू राता सिरजनहार ॥४॥
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Ashok Kumar Jaiswal via आदित्य श्रीराधेकृष्ण सोऽहं ~
मनुष्य जीवन के पांच प्रश्न:
१. प्राप्य क्या है ? (जीवन का लक्ष्य क्या है ?)
"प्राप्य" अर्थात जिसको प्राप्त करने के बाद संसार में कुछ भी पाना शेष न रह जाए। ऐसा क्या है ? केवल हरी शरणागति ! हरी चरण ! यही मानव जीवन का लक्ष्य है। यूँ तो पशुओं के भी चार पैर, दो श्रवण, दो चक्षु सब होते हैं किन्तु हम मनुष्यों को विवेक मिला जिसका सदुपयोग प्रभु की शरणागति होने में ही करना चाहिए। लोक और परलोक में केवल मेरे श्यामसुंदर के श्री चरण ही प्राप्य हैं जिनको पाने के बाद और किसी चीज़ को पाने की इच्छा नहीं रह जाती।
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२. प्राप्य कैसे प्राप्त हो ?
नवधा भक्ति से अर्थात पूजन, यजन, भजन-कीर्तन, नाम जप, व्रत-उपासना, यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार आदि नौ प्रकार के भक्ति योग का अनुगमन कर के प्रभु की शरणागति को प्राप्त किया जा सकता है। यदि ये न हो सके तो केवल गौ सेवा से हरी को प्राप्त किया जा सकता है। इतना भी न हो सके तो केवल माता-पिता की सेवा से हरी को प्राप्त किया जा सकता है।
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"सेवा कर भाव" हाथ पैर दबाना मात्र नहीं है। "सेवा कर अर्थ" है पूर्ण मनोयोग से माता-पिता की प्रत्येक आज्ञा का पालन करना। और जो इतना भी न हो तो केवल गुरु की सेवा से हरी को प्राप्त किया जा सकता है - कहते हैं "गुरुर्साक्षात परब्रह्म" अर्थात, गुरु ही परब्रह्म का साक्षात् स्वरुप हैं। सो उनकी सेवा से भी प्रभु की शरणागति को प्राप्त कर सकते हैं। और कुछ भी न हो सो केवल दीन-दुखियों की सेवा से ही प्रभु को प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु सेवा निष्काम और नि:स्वार्थ भाव से होनी चाहिए।
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३. प्राप्य के मार्ग में क्या बाधाएं हैं ?
वर्तमान समय में तो इतनी बाधाएं है कि जिनका कोई पार नहीं। युवाओं और बालकों को कुसंग ही कुसंग मिल रहा है। सत्संग का अभाव है। फिर कहते हैं देश में भयंकर घटनाएं न हों ? कैसे ? एक तरफ तो कुसंग को व्याप्त किया जा रहा है और दूसरी तरफ उसके परिणामों की निंदा! कुसंग अनेक प्रकार के होते हैं। भोग का कुसंग: अर्थात जो अखाद्य और अपेय है(मांस व मदिरा) उसका सेवन भी कुसंग है।
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विचारों का कुसंग: अर्थात किसी के प्रति मलिन विचार, द्वेष, मत्सर(ईर्ष्या-जलन), बैर भाव(अरे उसने ऐसा किया, अवसर मिलने दो। देख लेंगे उसको) इस प्रकार के विचारों से भी बचना चाहिए।
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जीव का कुसंग: दुराचारी व्यक्ति का कुसंग करना। वर्षों का सत्संग भी एक पल के कुसंग में क्षीण हो जाता है। ये सब बाधाएं हैं प्राप्य के मार्ग में। बाधाओं को दूर कैसे करें ? केवल एक मात्र मार्ग है इन सभी बाधाओं को दूर करने का - सद्गुरु की शरण ! एक बार जो सद्गुरु को हृदय में बसा लिया फिर तो प्राप्य के मार्ग कीं सारीं बाधाएं अपने आप दूर होतीं जाएँगी। सत्संग बढ़ेगा। सत्संग बढ़ने से ज्ञान बढ़ेगा।
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४. प्राप्य के योग्य कौन है ?
केवल दो ही लोग प्राप्य के योग्य हैं- एक तो महामूर्ख(अज्ञानी) और दूसरा महाज्ञानी। अज्ञानी इसलिए योग्य है कि वह जो भी करता है वह सहज होता है। उसके कोई सत्संग या कुसंग व्याप्त नहीं कर सकता। और दूसरा परमज्ञानी इसलिए कि उसे सब पता है। वह सब जानता है। और कभी भक्ति मार्ग से विचलित नहीं होगा। केवल बीच वाले ही अधर में रह जाते हैं। सो इन सबको चाहिए कि ज्ञान की ओर अग्रसर हों। ज्ञान की उच्चतम कक्षा में प्रवेश करें और प्राप्य को प्राप्त करने का साधन करें !
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५. प्राप्ता कौन ?
हम मनुष्य ही प्राप्ता हैं। यदि शास्त्रों में कहे मार्गों पर चलकर भक्ति-योग को अपनाते हैं तो प्रभु शरणागति की प्राप्ति सहज हो जाती है। सभी मनुष्य प्राप्त हैं। आवश्यकता है तो केवल ज्ञान और विवेक को सही दिशा प्रदान करने की जो कि सद्गुरु के सानिध्य में प्राप्त हो जाती है।
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