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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विद्याद प्रसंग*
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२७७. मकरंद ताल
नेटि रे माटी में मिलना, मोड़ मोड़ देह काहे को चलना ॥टेक॥
काहे को अपना मन डुलावै, यहु तन अपना नीका धरना ।
कोटि वर्ष तूँ काहे न जीवै, विचार देख आगै है मरना ॥१॥
काहे न अपनी बाट सँवारै, संजम रहना, सुमिरण करणा ।
गहिला ! दादू गर्व न कीजे, यहु संसार पँच दिन भरणा ॥२॥
विद्याद के हरिसिंह ने जह सुना कि दादूजी विद्याद में पधारे हैं तब वे भी दादूजी के दर्शन करने आये । उनके शरीर की अकड़ तथा मरोड़ को देख कर उनको सचेत करने के लिये दादूजी ने उक्त २७७ का पद बोला और पश्चात् अपने नाम को सफल बनाने की प्रेरणा करके फिर
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१८८. मन प्रति सूरातन । त्रिताल
हरि मारग मस्तक दीजिये, तब निकट परम पद लीजिये ॥टेक॥
इस मारग मांहीं मरणा, तिल पीछे पाँव न धरणा ।
अब आगे होई सो होई, पीछे सोच न करणा कोई ॥१॥
ज्यों शूरा रण झूझै, तब आपा पर नहिं बूझै ।
सिर साहिब काज संवारै, घण घावां आपा डारै ॥२॥
सती सत गहि साचा बोलै, मन निश्चल कदे न डोलै ।
वाके सोच पोच जिय ना आवै, जग देखत आप जलावै ॥३॥
इस सिर सौं साटा कीजे, तब अविनाशी पद लीजे ।
ताका सब सिर साबित होवे, जब दादू आपा खोवे ॥४॥
उक्त उपदेश सुनकर हरिसिंह दादूजी के शिष्य हो गये । फिर दादूजी ने कहा - मेरे शिष्यों में तुमको सिंह पदवी ही रहेगी । तुम हरिसिंह नाम से ही प्रसिद्ध होगे । आगे चलकर हरिसिंह अच्छे संत हो गये थे । वे ५२ शिष्यों मैं हैं ।

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