शुक्रवार, 7 नवंबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ १९

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग*
*होइ उदास बिचार बिना नर,*
*गेह तज्यौ बन जाइ रह्यौ है,* 
*अंबर छाड़ि बघम्बर लै करि,*
*कै तप कौं तन कष्ट सह्यौ है ॥* 
*आसन मारि सवासन व्है,*
*मुख मौन गही मन तौ न गह्यौ है,* 
*सुन्दर कौंन कुबुद्धि लगी कहि,*
*या भवसागर माँहिं बह्यौ है ॥१९॥* 
*अविवेकी पुरुष का गृहत्याग अनुचित* : कोई अविवेकी पुरुष गंभीर विचार किये बिना ही घर बार छोड़कर वन में जा कर रहने लगे । 
साधारण वस्त्र त्याग कर मृगचर्म पहन कर तथा शरीर को अन्य इसी तरह के विविध कष्ट देकर तप का आडंम्बर रचता है । 
वहाँ कोई पद्मासन लगा कर साधना का अभिनय करता है, मौन व्रत लिये रहता है, परन्तु मन इसका अन्यत्र ही आसक्त है । 
ऐसे पुरुष को लक्ष्य कर *महाराज श्री सुन्दरदास* जी कहते हैं कि इसको यह कौन कुमति जाग्रत् हुई कि इसने अपना भवसागर में बहने का पूर्ण प्रबन्ध कर लिया है ! ॥१९॥ 
(क्रमशः) 

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