गुरुवार, 6 नवंबर 2014

*ईडवा प्रसंग*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*ईडवा प्रसंग*
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१९०. भगवंत भरोसा । ललित ताल
दादू मोहि भरोसा मोटा,
तारण तिरण सोई संग मेरे, कहा करै कलि खोटा ॥टेक॥
दौं लागी दरिया तै न्यारी, दरिया मंझ न जाई ।
मच्छ कच्छ रहैं जल जेते, तिन को काल न खाई ॥१॥
जब सूवै पिंजर घर पाया, बाज रह्या वन मांहीं ।
जिनका समर्थ राखणहारा, तिनको को डर नांहीं ॥२॥
साचे झूठ न पूजै कबहूँ, सत्य न लागै काई ।
दादू साचा सहज समाना, फिर वै झूठ विलाई ॥३॥
ईडवा नरेश नरवद ने सुना कि दादूजी मेड़ता में हैं । तब वे मेड़ता गये और दादूजी को शिष्यों सहित ईडवे ले आये । तालाब पर ठहराकर स्वयं ग्राम में गये और ग्राम से जनसमुदाय के साथ संकीर्तन करते हुये दादूजी को ग्राम् में ले जाने को आये और कहा अब आप ग्राम में पधारें । दादूजी ने कहा - हम तो यहां ही रहेंगे । 
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नरवद आदि ने कहा यहां प्रेत रहता है और यहां रहने वाले को मार देता है किसी साधु को मार दिया तो हमको पाप लगेगा । तब दादूजी ने सबको उक्त १९० का पद सुनाया था । और वहां ही रहे थे । फिर एक नाथ आया और बोला - आप ग्राम न पधारे तो मेरे यहां पधारें । यहाँ तो भयंकर प्रेत रहता है । उसके आगे आपकी शक्ति कु़छ भी काम नहीं देगी । 
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तब दादूजी ने कहा - 
काया माहीं भय घणा, सब गुण व्यापे आय । 
दादू निर्भय घर किया, रहे नूर में जाय ॥२९॥
खड़ग धार विष ना मरें , कोई गुण व्यापे नांहिं ।
राम रहैं त्यों जन रहै, काल झाल जल मांहि ॥३०॥
(विचार अंग १८)
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फिर पद ३९९ - 
३९९. निष्काम । उदीक्षण ताल
ऐसा अवधू राम पियारा, प्राण पिंड तैं रहै नियारा ॥टेक॥
जल लग काया तब लग माया, रहै निरन्तर अवधू राया ॥१॥
अठ सिधि भाई नो निधि आई, निकट न जाई राम दुहाई ॥२॥
अमर अभय पद बैकुंठ बासा, छाया माया रहै उदासा ॥३॥
सांई सेवक सब दिखलावै, दादू दूजा दृष्टि न आवै ॥४॥
सुनाया फिर नाथ तो चला गया । फिर एक फकीर ने आकर कहा - आप लोग रात को यहां नहीं ठहरना यहां एक प्रेत रहता हैं, वह रात्रि को यहां रहने वालों को मार देता है । 
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तब दादूजी ने उसे ३२३ का पद - 
३२३. समर्थ उपदेश । दादरा ताल
समर्थ मेरा सांइयां, सकल अघ जारै,
सुख दाता मेरे प्राण का, संकोच निवारै ॥टेक॥
त्रिविध ताप तन की हरै, चौथे जन राखै ।
आप समागम सेवका, साधू यूं भाखै ॥१॥
आप करै प्रतिपालना, दारुण दुख टारै ।
इच्छा जन की पूरवै, सब कारज सारै ॥२॥
कर्म कोटि भय भंजना, सुख मंडन सोई ।
मन मनोरथ पूरणा, ऐसा और न कोई ॥३॥
ऐसा और न देखिहौं, सब पूरण कामा ।
दादू साधु संगी किये, उन आतम रामा ॥४॥
सुनाया फिर वह फकीर भी चला गया । फिर अर्ध रात्रि को प्रेत ने अपनी कुचेष्टायें आरम्भ की तब जो नवीन साधु हुये थे डरने लगे । 
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यह देखकर दादूजी ने प्रेत को प्रेत योनि से मुक्त करने का विचार किया और १८१ का पद - 
१८१. आशीर्वाद मंगल । झपताल
जय जय जय जगदीश तूँ, तूँ समर्थ सांई ।
सकल भुवन भानैं घड़ै, दूजा को नांहीं ॥टेक॥
काल मीच करुणा करै, जम किंकर माया ।
महा जोध बलवंत बली, भय कंपै राया ॥१॥
जरा मरण तुम तैं डरै, मन को भय भारी ।
काम दलन करुणामयी, तूँ देव मुरारी ॥२॥
सब कंपैं करतार तैं, भव - बंधन पाशा ।
अरि रिपु भंजन भय गता, सब विघ्न विनाशा ॥३॥
सिर ऊपर सांई खड़ा, सोई हम माहीं ।
दादू सेवक राम का निर्भय, न डराहीं ॥४॥
यह पद बोला । उक्त पद को सुनकर वह प्रेत अपनी कुचेष्टायें छोड़कर दादूजी के चरणों में आ पड़ा । 
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तब दादूजी ने उसे २९१ का पद - 
२९१. हित उपदेश । गज ताल
ताको काहे न प्राण संभालै ।
कोटि अपराध कल्प के लागे, मांहि महूरत टालै ॥टेक॥
अनेक जन्म के बन्धन बाढ़े, बिन पावक फँध जालै ।
ऐसो है मन नाम हरी को, कबहूँ दुःख न सालै ॥
चिंतामणि जुगति सौं राखै, ज्यूं जननी सुत पालै ।
दादू देखु दया करै ऐसी, जन को जाल न रालै ॥
यह पद सुनाया । इसके सुनते ही वह प्रेत अपने साथी भूतों के सहित प्रेत योनि से मुक्त हो गया । फिर रात्रि में प्रेतों का उपद्रव न देखकर सायंकाल जो नाथ दादूजी के पास आये थे उन्होंने सोचा - आज प्रेतों का कु़छ भी उपद्रव नहीं हु्आ है । हो सकता है दादूजी ने उनको मुक्त कर दिया होगा । फिर वे प्रातःकाल दादूजी के पास गये और बोले - मुझे आश्चर्य है कि प्रचण्ड प्रेत कैसे मुक्त हो गये । 
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तब दादूजी ने ४०३ का पद - 
४०३. खेमटा ताल
राम रमत है देखे न कोइ, जो देखे सो पावन होइ ॥टेक॥
बाहिर भीतर नेड़ा न दूर, स्वामी सकल रह्या भरपूर ॥१॥
जहं देखूं तहँ दूसर नांहि, सब घट राम समाना मांहि ॥२॥
जहाँ जाऊँ तहँ सोई साथ, पूर रह्या हरि त्रिभुवन नाथ ॥३॥
दादू हरि देखे सुख होहि, निशदिन निरखन दीजे मोहि ॥४॥
सुनाया तब नाथजी समझ गये कि दादूजी प्रेतों को प्रेत योनि छुड़ाने के लिये और लोगों का भय मिटाने के लिये ही रात में यहां ठहरे थे । फिर नाथ दादूजी को प्रणाम करके अपने आसन पर चले गये ।

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