गुरुवार, 6 नवंबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ १८

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग*
*जो कोउ रांम बिना नर मूरिख,*
*औरन के गुन जीभ भनैगी ।* 
*आंनि क्रिया गढ़तै गड़वा पुनि,*
*होत है भेरि कछू न बनैगी ॥* 
*ज्यौं हथफेरि दिखावत चांवर,*
*अन्त तौ धूरि की धूरि छनैगी ।* 
*सुन्दर भूल भई अति सै करि,*
*सूते की भैंस पाड़ा ई जनैगी ॥१८॥* 
जो कोई मूर्ख पुरुष प्रभु के भजन के अतिरिक्त किसी अन्य के गुणगान में अपनों इन्द्रिय(जिव्हा) को लगायगा तो वह अपना समय व्यर्थ ही नष्ट करेगा । 
जैसे कोई, अकुशल कुम्हार लोटा बनाते - बनाते मृदंग बना बैठे तो उसका कोई हितकर कार्य सिद्ध नहीं होता । 
जैसे कोई बाजीगर अपनी हथफेरी(चालाकी) से धूलि से कितना ही अन्नकण(चाँवल) बनावे, परन्तु अन्त में उसके हाथ में धूलि(रेत) ही रह जाती है । 
*महाराज श्री सुन्दरदास* जी कहते हैं - यदि इस तरह प्रमाद पर प्रमाद करते चलोगे तो तुम्हारा अहित ही होगा; क्योंकि असावधान(सोये हुए) पुरुष की भैंस तो पाड़ा(भैंस का बच्चा) ही पैदा कराती है ॥१८॥ 
(क्रमशः) 

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