शनिवार, 8 नवंबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ २०

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग*
*भेष धर्यो पर भेद न जांनत,*
*भेद लहे बिनु खेद ही पैहै ।* 
*भूख ही मारत नींद निवारत,*
*अंन तजै फल पत्रनि खैहै ॥* 
*और उपाइ अनेक करै पुनि,*
*ताहि तैं हाथ कछू नहीं ऐहै ।* 
*या नर देह वृथा सठ खोवत,*
*सुन्दर रांम बिना पछितैहै ॥२०॥* 
इस अविवेकी पुरुष ने साधुओं का भेष(काषाय वस्त्र आदि) तो धारण कर लिया, परन्तु इसका महत्व(गम्भीरता) नहीं जान पाया । महत्व बिना समझे इसको धारण करने से यह कष्ट ही पायगा । 
इस भेष के नाम पर यह भूखा ही रहता है, भले प्रकार से नींद भी नहीं ले पाता, सर्वविध अन्न का परित्याग कर पत्ते, फल खाकर ही जीवनयापन करता है; 
इस भेष का निर्वाह करने के लिये यह ऐसे ही अन्य उपाय भी करता रहता है, परन्तु इससे इसको कुछ भी नयी उपलब्धि नहीं होती । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - इस विधि से जीवनयापन करता हुआ यह मनुष्य दुःख ही पायगा तथा प्रभु भजन में लगे बिना इस को अन्त में पछताना ही पड़ेगा; क्योंकि यह दुर्लभ देह पा कर भी इसको ऐसे हीन कर्मों द्वारा वृथा नष्ट कर रहा है ॥२०॥
(क्रमशः)

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