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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*ईडवा प्रसंग*
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७६. लांबी(अधीरता अस्थिरता) । दादरा
गुरुमुख पाइये रे, ऐसा ज्ञान विचार ।
समझ समझ समझ्या नहीं, लागा रंग अपार ॥टेक॥
जांण जांण जांण्यां नहीं, ऐसी उपजै आइ ।
बूझ बूझ बूझ्या नहीं, ढोरी लागा जाइ ॥१॥
ले ले ले लीया नहीं, हौंस रही मन मांहि ।
राख राख राख्या नहीं, मैं रस पीया नांहि ॥२॥
पाय पाय पाया नहीं, तेजैं तेज समाइ ।
कर कर कछु किया नहीं, आतम अंग लगाइ ॥३॥
खेल खेल खेल्या नहीं, सन्मुख सिरजनहार ।
देख देख देख्या नहीं, दादू सेवक सार ॥४॥
एक दिन ईडवा में नरवद के पुत्र वग्घा दादूजी के सामने कु़छ जिज्ञासा से बैठे थे । तब दादूजी ने उनको उक्त ७६ के पद से उपदेश किया था ।
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७९. दीपचन्दी
मेरा मन लागा सकल करा, हम निशदिन हिरदै सो धरा ॥टेक॥
हम हिरदै मांही हेरा, पीव परगट पाया नेरा ।
सो नेरे ही निज लीजै, तब सहजैं अमृत पीजै ॥१॥
जब मन ही सौं मन लागा, तब ज्योति स्वरूपी जागा ।
जब ज्योति स्वरूपी पाया, तब अन्तर मांही समाया ॥२॥
जब चित्त हि चित्त समाना, हम हरि बिन और न जाना ।
जाना जीवन सोई, अब हरि बिन और न कोई ॥३॥
जब आतम एकै बासा, पर आतम मांहि प्रकाशा ।
परकाशा पीव पियारा, सो दादू मिंत हमारा ॥४॥
ईडवा में एक दिन रुपा भक्त दादूजी के सामने बैठा था । उसके मन की स्थिति जानकर दादूजी ने उक्त ७९ के पद से उसे उपदेश दिया था ।
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८०. नाम महिमा । झपताल
गोविन्द ! नाम तेरा, जीवन मेरा, तारण भवपारा ।
आगे इहि नाम लागे, संतन आधारा ॥टेक॥
कर विचार तत्त्व सार, पूरण धन पाया ।
अखिल नाम अगम ठाम, भाग हमारे आया ॥१॥
भक्ति मूल मुक्ति मूल, भव - जल निस्तरना ।
भरम कर्म भंजना भय, किल्विष सब हरना ॥२॥
सकल सिद्धि नव निधि, पूरण सब कामा ।
राम रूप तत्त अनूप, दादू निज नामा ॥३॥
ईडवा में एक दिन हेमा नामक व्यक्ति आया और दादूजी से बोला - स्वामिन् ! मेरे को भी मेरे से हो सके ऐसा साधन बतावें । तब दादूजी ने उसे उक्त ८० के पद से उपदेश किया था ।
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दादू यहु मन सुरति समेट कर, पंच अपूठे आण ।
निकट निरंजन लाग रहु, संग सनेही जाण ॥(परिचय अंग ४)
ईडवा में एक दिन जीता नामक व्यक्ति ने दादूजी से पू़छा - मैं क्या साधन करुं ? तब दादूजी ने उक्त २८३ की साखी से उत्तर दिया था ।
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६७. परिचय हैरान । नटताल
ऐसो खेल बन्यो मेरी माई, कैसै कहूँ कछु जान्यो न जाई ॥टेक॥
सुर नर मुनिजन अचरज आई, राम - चरण को भेद न पाई ॥१॥
मंदिर माहिं सुरति समाई, कोऊ है सो देहु दिखाई ॥२॥
मनहिं विचार करहु ल्यौ लाई, दिवा समान कहाँ ज्योति छिपाई ॥३॥
देह निरंतर शून्य ल्यौ लाई, तहं कौण रमे कौण सूता रे भाई ॥४॥
दादू न जाणै ये चतुराई, सोइ गुरु मेरा जिन सुधि पाई ॥५॥
ईडवा में एक दिन परमात्मा की भक्त वृद्धा लाखां बाई ने सत्संग समाप्ति पर दादूजी से पू़छा - स्वामिन् ! ब्रह्म साक्षात्कार के समय की स्थिति कैसी होती है ? कृपा करके बताइये । तब दादूजी ने उसे ६७ का पद सुनाया था ।
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