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॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१२. चाणक को अंग*
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*कोउक जात पिराग बनारस,*
*कोउ गया जगनाथ ही धावै ।*
*को मथुरा बदरी हरिद्वार सु,*
*कोउ भया कुरुखेत हि न्हावै ॥*
*कोउक पुष्कर व्है पंच तीरथ,*
*दोरैइ दोरै जु द्वारिका आवै ।*
*सुन्दर बित्त गड्यौ घर मांहि सु,*
*बाहिर ढूंढत क्यौ करि पावै ॥१५॥*
तीर्थयात्रा का भी निषेध : प्रभुदर्शन के लिये कोई अज्ञ साधक गया धाम की यात्रा करता है, कोई जगन्नाथपुरी की दौड़ लगाता है, कोई मथुरा, कोई बदरीनाथ, कोई हरद्वार या कुरुक्षेत्र में स्नान कर ही प्रभुदर्शन की चाह रखता है ।
कोई पुष्कर या पाँच तीर्थों में(१.कुशावर्त, २.बिल्केश्वर, ३.नाल पर्वत, ४.कनखल एवं हरिद्वार) दौड़ दौड़कर स्नान कर के या द्वारिका जा कर प्रभु दर्शन की कामना करता है ।
परन्तु उस मूर्ख को यह नहीं सूझता कि प्रभु दर्शनरूप धन तो घर(घट - शरीर) में गुप्त रूप से पड़ा है । उसे बाहर ढूँढ़ने का कितना भी प्रयास कर लो वह कैसे मिल सकेगा ! ॥१५॥
(क्रमशः)

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