#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सांई सरीखा सुमिरण कीजे, सांई सरीखा गावै ।
सांई सरीखी सेवा कीजे, तब सेवक सुख पावै ॥
दया धर्म का रूंखड़ा, सत सौं बधता जाइ ।
संतोंष सौं फूलै फलै, दादू अमर फल खाइ ॥
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"भगवान् श्रीकृष्ण" ~ भक्त दामाजी पंत...
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अनेक वर्ष पूर्व मंगलवेढा गांव में दामाजीपंत नाम के एक भक्त रहते थे । वे बिदर सम्राट की राजसभा में बडे पद पर नौकरी कर रहे थे । सम्राट की नौकरी प्रामाणिकता से करने के लिए उनका बडा नाम था । राजसभा का कामकाज समाप्त होने पर बचा हुआ समय वे भगवान पांडुरंग के भजन-पूजन में बिताते थे।
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एक बार राज्य में भीषण सूखा फैल गया । जानवर चारा पानी बिना तडपकर मरने लगे । गरीब जनता पर खाली पेट रहने की बारी आई । यह देखकर दामाजीपंत का मन हिल गया । उन्होंने सोचा कि, सम्राट के कोठार धन-धान से लबालब भरे हुए है, ऐसी स्थिति में प्रजा को भूख से तडपकर मरने देना ठीक नहीं ।
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अत: दामाजीपंत ने परिसर के गावों में ढिंढोरा पीटकर बताया कि, सारे लोग सरकारी गोदाम से आवश्यकतानुसार धान ले जाएं । लोगोंने ढिंढोरा सुना । सबके लिए स्वयं दामाजीपंत ने गोदाम का द्वार खोल दिया । लोगों के झुंड धान के गोदाम की ओर जाने लगे । सम्राट से बिना पूछे दामाजीपंत ने गोदाम से धान लोगों में बांटा, यह बात हवा जैसी फैली । सम्राट ने यह पता चलते ही आरक्षकों को आज्ञा दी कि, दामाजीपंत को बंदी बनाकर राजसभा में उपस्थित किया जाए । इधर ये सब बातें सर्वज्ञानी भगवान पांडुरंग जान गए तथा भक्तों का संकट दूर करने हेतु उन्होंने एक युक्ति सोची ।
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भगवान पांडुरंग ने स्वयं महार का रूप लिया । उन्होंने फटे वस्त्र परिधान कर पीठ पर कंबल, हाथ में लाठी, सिर पर साफा तथा उस पर छोटी मोहरों की थैली, ऐसा भेष बनाया तथा वह सम्राट की राजसभा में उपस्थित हुए ।
तब रूप बदलकर आए भगवान पांडुरंग को देखकर, ‘तुम कौन हो, कहां से आए हो, तुम सिर पर क्या लाए हो?' ऐसे एक ही समय में अनेक प्रश्न सम्राट ने किए ।
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उसपर भगवान पांडुरंग ने अपना परिचय करवाते हुए कहा, ‘‘ मैं मंगलवेढा का महार, विठू; दामाजी का चाकर'', ऐसा कहकर उसने अपने सिर से थैली खाली करनी आरंभ की । देखते ही देखते सुवर्ण मोहरों का बडा ढेर सम्राट के सामने लग गया । यह चमत्कार देखकर सम्राट तथा राजसभा से दूसरे सरदार, सबने आश्चर्य से दांतों तले अंगुली दबा ली ।
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इधर आरक्षकों ने दामाजीपंत को बंदी बनाकर सम्राट के सामने उपस्थित किया; किंतु सम्राट ने दामाजीपंत की हथकडी हटाने को कहकर उन्हें स्वतंत्र किया तथा घटी घटना का सारा वृत्तांत बताया ।
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यह सब देखकर तथा सुनकर दामाजीपंत के ध्यान में तुरंत सारी घटना आई । अपने भक्त का संकट टालने हेतु पांडुरंग को महार बनकर चाकर का काम करना पडा, इसका उन्हें बहुत बुरा लगा । उनका गला भर आया ।
यदि हम भी परमेश्वर की भक्ति कर, उन पर श्रद्धा रखकर परोपकारी वृत्ति अपनाए, तो दामाजीपंत जैसी अपने उपर भी उनकी कृपा हो सकती है ।

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