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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*डीडवाना प्रसंग से आगे*
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२६. (क)-भय चेतावनी । त्रिताल
जियरा, चेत रे जनि जारे ।
हे जैं हरि सौं प्रीति न कीन्ही, जन्म अमोलक हारे ॥टेक॥
बेर बेर समझायो रे जियरा, अचेत न होइ गंवारे ।
यहु तन है कागद की गुड़िया, कछु इक चेत विचारे ॥१॥
तिल तिल तुझको हानि होत है, जे पल राम बिसारे ।
भय भारी दादू के जिय में, कहु कैसे कर डारे ॥२॥
डीडवाने में एक पुष्करणे ब्राह्मण रामदास रहते थे । उनकी दादूजी पर बहुत श्रद्धा थी । एक दिन वे चिन्तायुक्त उदास मुख दादूजी के सामने बैठे थे । उस चिन्ता को जानकर दादूजी ने उनको उक्त २६(क) से उपदेश देकर चिन्ता से मुक्त कर दिया था । चिन्ता हट जाने से उनका मुख उसी क्षण प्रसन्न भासने लगा था । फिर तो वे प्रभु का भजन करते हुये प्रसन्न रहने लगे थे ।
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२११. रूपक ताल
इहै परम गरु योगं, अमी महारस भोगं ॥टेक॥
मन पवना स्थिर साधं,
अविगत नाथ अराधं, तहँ शब्द अनाहद नादं ॥१॥
पंच सखी परमोधं,
अगम ज्ञान गुरु बोधं, तहँ नाथ निरंजन शोधं ॥२॥
सद्गुरु मांहि बतावा,
निराधार घर छावा, तहँ ज्योति स्वरूपी पावा ॥३॥
सहजैं सदा प्रकाशं,
पूरण ब्रह्म विलासं, तहँ सेवग दादू दासं ॥४॥
डीडवाने में गोपालदास माहेश्वरी ने बहुत प्रकार से सत्संग, संकीर्तन, भोजनादि से उत्सव किया था । उसमें इधर-उधर से संत भी आये थे । एक नाथ ने दादूजी से पू़छा- आपने योग साधना कहां किया है ? और महारस का उपभोग किया है या नहीं किया ? नाथ के उक्त प्रश्नों का उत्तर देने के लिये उक्त २११ का पद दादूजी ने उसे सुनाया था । उक्त पद को सुनकर नाथ संत समझ गये कि ये तो उच्चकोटि के संत हैं । फिर वे भोजनादि से निवृत्त होकर विचर गये ।
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२०८. त्रिताल
अवधू ! बोल निरंजन बाणी, तहँ एकै अनहद जाणी ॥टेक॥
तहँ वसुधा का बल नाहीं, तहँ गगन घाम नहिं छाहीं ।
तहँ चंद सूर नहिं जाई, तहँ काल काया नहिं भाई ॥१॥
तहँ रैणि दिवस नहिं छाया, तहँ बाव वर्ण नहिं माया ।
तहँ उदय अस्त नहिं होई, तहँ मरै न जीवै कोई ॥२॥
तहँ नाहीं पाठ पुराना, तहँ आगम निगम नहिं जाना ।
तहँ विद्या वाद न ज्ञाना, नहिं तहाँ जोग अरु ध्याना ॥३॥
तहँ निराकार निज ऐसा, तहँ जाण्या जाइ न जैसा ।
तहँ सब गुण रहिता गहिये, तहँ दादू अनहद कहिये ॥४॥
डीडवाने में उक्त उत्सव के समय एक अवधूत संत भी आये थे । वे दादूजी के पास बैठकर इधर-उधर की बातें सुनाने लगे तब कु़छ देर सुनकर फिर दादूजी ने उनको उक्त २०८ का पद सुनाया । उक्त पद सुनकर अवधूत ने अपनी भूल स्वीकार की और बोले- आप तो क्षमा को ही सार मानने वाले संत हैं अतः क्षमा कीजिये फिर प्रणाम करके चले गये ।
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