शनिवार, 22 नवंबर 2014

१४. बचन बिवेक को अंग ~ ५

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१४. बचन बिवेक को अंग*
*एकनि के बचन सुनत अति सुख होइ,*
*फूल से झरत हैं अधिक मनभांवने ।*
*एकनि के बचन अशम मानौ बरषत,*
*श्रवण के सुनत लगत अलखांवने ॥*
*एकनि के बचन कंटक कटु बिष रूप,*
*करत मरम छेद दुख उपजांवने ।*
*सुन्दर कहत घट घट मैं बचन भेद,*
*उत्तम मद्यम अरु अधम सुनांवने ॥५॥*
*वचन के तीन प्रकार* : एक पुरुष द्वारा बोले हुए वचन ऐसे होते हैं कि मानो उसके मुख से फूल झर रहे हों । उनके श्रवणमात्र से हृदय अत्यधिक आल्हादित हो उठता है ।
दूसरे किसी पुरुष द्वारा बोले हुए वचन ऐसे होते हैं मानों सुनने वाले पत्थर(=अश्म) फैंक रहा हो । उनके सुनते ही उन को सुनने के प्रति उपेक्षा होने लगती है । 
फिर किसी तीसरे पुरुष के वचन होते हैं जो सुनने में कटु, हृदयस्थल को बींधने वाले तथा परिणाम में विष के समान फलप्रद होते हैं । जो सुनते ही मर्मच्छेद करने वाले तथा दुःखदायी होते हैं । 
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - प्रत्येक मनुष्य के बोलने के भिन्न - भिन्न तरीके हैं, जो उपर्युक्त रीति से उत्तम, मद्यम एवं अधम - यों तीन प्रकार से कहे जा सकते हैं ॥५॥ 
(क्रमशः) 

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