रविवार, 23 नवंबर 2014

= १९९ =

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卐 सत्यराम सा 卐 
 ३७७. आशीर्वाद । षड़ताल 
धन्य तूँ धन्य धणी, 
तुम्ह सौं मेरी आइ बणी ॥टेक॥ 
धन्य धन्य धन्य तूँ तारे जगदीश, 
सुर नर मुनिजन सेवैं ईश । 
धन्य धन्य तूँ केवल राम, 
शेष सहस्र मुख ले हरि नाम ॥१॥ 
धन्य धन्य तूँ सिरजनहार, 
तेरा कोई न पावै पार । 
धन्य धन्य तूँ निरंजन देव, 
दादू तेरा लखै न भेव ॥२॥
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!! श्री भगवान् भाष्यकार चरणकमलेभ्यो नमो नमः !!
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“ धन्यता{कृत - कृत्यता} का बोध ” {४} : 
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नारायण ! राजा भीमसेन वस्तुतः वेद की जगह हैं और उनका मन्त्री मतिसार मति अर्थात् युक्ति है । वेद और युक्ति, जिनको दोनों मिले हुए हों, वे कभी परास्त नहीं होते । इसलिये तो "भगवान् श्री मनु महाराज" ने नियम किये हैं "युक्तिहीन विचारेण धर्महानिःप्रजायते ।" जो युक्ति से रहित होकर वेद अर्थात् श्रुति का विचार करता हैं, वे धर्म का नुकसान करता है, फायदा नहीं करता । 
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बहुत बार लोग लोग हमें कहा करते हैं कि "महाराज ! क्या कारण है कि आज के जन - जीवन में धर्म का इतना प्रचार होने पर भी धर्म की हानि देखने में आती है ?" उसका कारण यही है कि युक्ति सहित होकर धर्म का विचार नहीं है । इसलिये वह नुक्सान देता है । श्रुतियों को समझने के लिए हमेशा युक्ति रूपी औजार का प्रयोग करना चाहिये नहीं तो गड़बड़ा जायेंगे । सामान्य आदमी की भी बात समझनी हो तो युक्ति लगानी पड़ती है । 
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माँ कई बार गुस्सा हो लड़के को कहती है "मर जा, राम मारिया !" इसका मतलब यह है नहीं कि वह जहर खा ले । मतलब युक्ति से है कि अमुक काम मत करो । लड़का कोई बुरा कर्म करने जाता है, शराब पीता है तो बाप कहता है कि "शराब पीनी है तो मेरे घर मत आना ।" मतलब यह नहीं कि दूसरा फ्लैट लेकर शराब पिया कर ! मतलब यह है कि शराब मत पिया कर । युक्ति होगी तब यह मतलब समझ में आयेगा । जहाँ राजा भीमसेन और उसका मन्त्री मतिसागर अर्थात् वेद और युक्ति दोनों साथ है वहाँ कभी हार नहीं होती । 
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नारायण ! हेमपुर प्रत्येक प्राणी का अपना शहर है । यह हेम अर्थात् स्वर्ण का नगर है । बड़ा ही सुन्दर नगर है । प्रत्येक मनुष्य के अन्दर आठ दरवाजे वाला{पुर्यष्टक} है जैसे दिल्ली चार दरवाजों वाली है। हेमपुर में रहने वाला राजा हेमरथ है, जो इसको चलाने वाला है लेकिन इसने चण्ड के हाथ में अधिकार दे रखा है । काम, क्रोध, लोभ चण्ड हैं, उनके हाथ में अधिकार दे रखा है । जो काम, क्रोध, लोभ कहेँ, वही इस राज्य में चलता है । 
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ये तीनों अत्यन्त दुष्ट प्रकृति के हैं इसलिये ये चण्ड हैं ओर इनके हाथ में राज्य देकर मनुष्य कहता है कि "आज मेरे मन की बात हो गई ।" उसे दुःख नहीं होता कि "मन की तो बात हो गई, मेरा क्या बनेगा !" काम, क्रोध से प्रयुक्त होकर चलना ही "प्रेय मार्ग" हो गया । इसीलिये "श्रेय मार्ग" से दूर हुआ है । इस चण्ड मन ने काम, क्रोध, लोभ से युक्त होकर चाण्डालिनी मातंगिनी से सम्बन्ध कर रखा है । मातंग हाथी को कहते हैं, हाथी कभी नहीं भूलता । इसी प्रकार हमारे अनुभवों की वासनायें ही मातंगी हैं । 
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लोग कहते है कि "मैं सिनेमा देखता हूँ लेकिन मेरे ऊपर कोई असर नहीं पड़ता ।" ऐसा कभी हो सकता है ! कोई कहे कि "मैं भासयन्त्र अर्थात् कैमरे से फोटो लेता रहता हूँ, कैमरे में फिल्म भी है, लेकिन फोटो नहीं आती", तो कभी नहीं हो सकता । जो चीज देखेंगे, वह कभी भूलने वाली नहीं है, वह अपनी वासना जरूर डालेगी । काम - क्रोध रूपी चण्डाकार मन ने वासना अर्थात् मातंगी से रिश्ता जोड़ रखा है । वासना में फँसा हुआ उसी के अनुसार चलता है । 
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किसी समय आत्मा कहता है कि मुझे इससे छूटना है तो पता लगता है कि जब देखो वासना के पीछे दौड़ता रहता है । अभी इसे वेद और युक्ति नहीं मिले । इसको चलाने वाले जीव अर्थात् हेमरथ को होश आता है तो मन - रूपी चण्ड को बाँधकर खौलते तेल में डाल देता है, अर्थात् इस मन को जबरदस्ती कष्ट देता है । 
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जितना हठ योग का अभ्यास है, यह सारा मन को बाँधकर तलने की तरह है । हम खायेंगे नहीं, हम अमुक काम नहीं करेंगे तो अन्दर - ही - अन्दर मन तड़पेगा । अब उस अपूर्ण कामना से भरे हुए मन को कामना पूर्ण करने का मौका तो मिला नहीं, इसलिये अब वह राक्षस बन जाता है । ताड़ना के द्वारा मन बजाय वश में होने के और भयंकर हो जाता है । रावण आदि के जीवन में देखें, उन्होंने मन पर बड़ा नियन्त्रण किया लेकिन हठयोग से किया, जिसका नतीजा यह है कि अपने सारे - के - सारे कुटुम्ब को मरवा दिया । 
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आज का मनोविज्ञान भी बार - बार यही कहता है कि "रिप्रैशन" अर्थात् विवेकहीन निग्रह बड़ा बुरा है । हठयोग के द्वारा इसे रोकने से सारी - की - सारी अधश्चेतना बनती जाती है । हठयोग के द्वारा यह उन्मूलित नहीं होता । संसार में अधिकतर मत - मतान्तर कहते हैं कि हठ से करो, लेकिन उसका कुछ फायदा नहीं होना है । अब इसका नतीजा यह हो गया है कि ईश्वर की सोने जैसी सृष्टि उजड़ी पड़ी है । न अपने अन्दर चैन और न आपसे - हमसे दूसरे को चैन मिलता है । 
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नीन्द लाने के लिये आज लोग गोलियाँ खाते हैं । कितनी सुन्दर परमेश्वर की सृष्टि है, वातानुकूल कमरे में मखमल के गद्दों पर सोया हुआ, रेफ्रिजेटर से ठण्डी - ठण्डी नींबू की शिकंजी आ रही है, और फिर कहता है "डॉक्टर साहब ! नीन्द नहीं आती ।" पूछते है क्या होगया, क्या एयरकण्डिशनर खराब हो गया ? कुछ नहीं, मन खराब हो गया था, सारे - के - सारे दुःख हैं । कारण यही है कि अधश्चेतना में मन को नियन्त्रित करके अन्दर दबाया गया है । सब कुछ हेमपुर में है लेकिन सुख और शान्ति नहीं । बाकी सब चीजें हैं, संसार की कोई चीज ऐसी नहीं जो न मिलती हो । 
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हमारे एक सज्जन मित्र कहते हैं कि संसार की कोई चीज ऐसी नहीं है जो पैसे से न मिले । हम कहते है बिना पैसे के सुख और शान्ति मिलती है । चाहे जितना पैसा दो लेकिन शान्ति नहीं मिलने वाली है। वह दबा हुआ मन रूपी राक्षर जिसे तल दिया गया है, वह मन इस आत्मा अर्थात् जीव के अंग - अंग को नोंच - नोंचकर खा रहा है । इसके अनन्त और आनन्द रूप को, अभय और अशोक रूप को खा रहा है । इसलिये यह बेचारा शोक वाला, भय वाला और परिच्छन्न बना हुआ है, और दुःखी बना हुआ है । प्रेय का सारा - का - सारा दबा हुआ मामलता इसे खा रहा है । 
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नारायण ! वहीं पर किसी काल में भीमसेन और मतिसागर, वेद और युक्ति का विचार सामने आ जाता है तब इस राक्षस बने हुए चण्ड को वेद कहता है कि "तेरी भी मुक्ति कराऊँगा । अरे मन, तू काम, क्रोध आदि के कारण बड़ा परेशान है । तू भी बड़े मज़े मे नहीं है, तेरी चलती जरूर है लेकिन सुख और शान्ति तेरे को भी नहीं है ।" जब यह समझता है तो उस राक्षस की भी मुक्ति करवा देता है, मन भी संतुष्ट हो जाता है । 
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जब परमात्मा की तरफ जाता है तो अधश्चेतना की कामना कहीं जाती नहीं, लेकिन अब इसे पता लग गया कि कामना किसकी करूँ । कहते है कामना ही करना चाहता है तो "आप्तकामः" आत्मा की कामना कर । बड़ा गुस्सा आता है । कोई बुरा नहीं, गुस्सा कर, लेकिन अनात्मा पर सारा क्रोध निकाल ले । लोभ कर, ना नहीं करते, शम, दम आदि सब का खुब लोभ कर कोई मना नहीं ! अब मन भी संतुष्ट हो जाता है । राक्षस की मुक्ति हो जाती है । शहर पुनः बस जाता है, जीवन्मुक्ति का आनन्द आने लगता है, उजड़े शहर में पुनः सुख और शान्ति छा जाती है । मन के गहनतम तत्त्वों से सुख - शान्ति आनी है । आत्म - तत्त्व खुलने पर सुख और शान्ति की प्राप्ति हो जाती है । इसी को श्री आचार्य शङ्कर ने धन्य कहा है । 
समाप्त । 
नारायण स्मृतिः 

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