मंगलवार, 4 नवंबर 2014

१२. चाणक को अंग ~ १६

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१२. चाणक को अंग*
*आगै कछू नहिं हाथ पर्यो पुनि,*
*पीछे बिगारि गये निज भौंना ।* 
*ज्यौं कोऊ कांमिनि कंत हि मारि,*
*चली संग और हि देखि सलौंना ॥* 
*सोउ गयौ ताजिकैं ततकाल,*
*कहै न बनै जु रही मुख मौंना ।* 
*तैसैं हि सुन्दर ज्ञान बिना सब,*
*छाढ़ि भये नर भांड कै दौंना ॥१६॥* 
ये गेरुए वस्त्र धारण करने से कुछ नयी उपलब्धि तो नहीं हुई, पीछे अपना घरद्वार भी चौपट(विनष्ट) कर आये । 
यह तो वैसी ही बात हो गयी जैसे कोई व्यभिचारिणी स्त्री किसी सुन्दर पुरुष पर आसक्त होकर अपने पति को मार कर उस पुरुष के साथ घर से निकल पड़े । 
वह पुरुष भी आगे चलकर उसका सब धन छीन कर उसे अकेली छोड़ कर चल दे । तब वह स्त्री इस घटना से अवाक् रह जाय, उसके मुख से कुछ भी बात न निकले । 
इसी तरह, श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - अविद्यान्धकार नष्ट हुए बिन किसी के द्वारा अपना पूर्व गृहत्याग कार्य वैसे ही ही है, जैसे किसी भांड के हाथ में खाली(रिक्त) दौना हो ॥१६॥ 
(क्रमशः) 

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