॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*१३. बिपरीत ज्ञानी को अंग*
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*देह सौं ममत्त पुनि गह सौं ममत्त सुत,*
*दारा सौं ममत्त मन माया मैं रहतु है ।*
*थिरता न लहै जैसे कंदुक चौगानं मांहि,*
*कर्मनि कै बसि मारयौ धका कौं बहतु है ॥*
*अंतहकरन सु तौ जगत सौं रचि रह्यौ,*
*मुख सौं बनाइ बात ब्रह्म की कहतु है ।*
*सुन्दर अधिक मोहि याही तैं अचंभौ आहि,*
*भूमि पर परयौ कोऊ चन्द कौं गहतु है ॥२॥*
इनका अपने देह में तो ममत्त्व है ही; पुत्र और स्त्री में भी ममत्त्व है तथा धन में भी इनका मन आसक्त है ।
जैसे मैदान में पड़ी हुई गैंद में स्थिरता नहीं होती, वह कभी इधर कभी उधर लुढकती ही रहती है; वैसे ही यह ज्ञानी कर्मों के वशीभूत हुआ उनके धक्के(आघात) से इधर उधर घूमता रहता है ।
इसका मन जगत् के प्रपंच में आसक्त है, केवल मुख से ही ब्रह्म का उपदेश कर रहा है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - ऐसे ज्ञानियों को देखकर, मुझे बहुत आश्चर्य होता है और ऐसा लगता है जैसे कोई भूमि पर लेटा हुआ बालक चन्द्रमा को पकड़ने की इच्छा कर रहा हो ॥२॥
(क्रमशः)
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