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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*कल्याण पट्टण प्रसंग से आगे*
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परमानन्द ने पू़छा - स्वामिन् ! पराभक्ति में भक्त की कैसी उत्कंठा रहती है । दादूजी ने कहा -
दादु मीठा राम रस, एक घूंट कर जाउं ।(परिचय अंग ४)
पुणग न पीछे को रहे, सब हिरदै मांहिं समाउं ॥३३०॥
अपने प्रश्न का उत्तर सुनकर परमानन्द दादुजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ में हैं ।
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एक दिन सत्संग समाप्ति पर खींवे ने पू़छा - स्वामिन् ! सालोकादि चार मुक्तियों को कौन भक्त नहीं चाहता है ? तब दादूजी ने कहा -
दादू राता राम का, पीवै प्रेम अघाइ ।
दादू राता राम का, मांगे मुक्ति बलाय ॥३३३॥
(परिचय अंग ४)
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दामोदर ने पू़छा - स्वामिन् ! भगवान् का निजदास कौन कहलाता है ? तब दयालु दादूजी ने कहा -
उज्वल भंवरा हरि कमल, रस रुचि बारह मास ।
पीवे निर्मल वासना, सो दादू निजदास ॥३३४॥
(परिचय अंग ४)
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फिर श्यामदास ने पू़छा - भगवन् ! जब हरि में प्रेम होने लगता है तब वह मानव कैसे कैसे कार्य करता है? दादूजी ने कहा -
नैनहूं से रस पीजिये, दादू सुरति सहेत ।
तन मन मंगल होत है, हरि से लागे हेत ॥३३५॥
(परिचय अंग ४)
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फिर माताओं में बैठी हुई हरखांबाई ने पू़छा - स्वामिन् ! पराभक्ति में भक्त किस प्रकार जीवित रहता है? तब दादूजी ने कहा—
परिचय का पय प्रेम रस, जे कोई पीवे ।
मतिवाला माता रहै, यूं दादू जीवे ॥३३८॥
(परिचय अंग ४)
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फिर हरिदास ने पू़छा - भगवन् ! काल कर्म के बाण से कब बचा जा सकता है ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवे राम रस, युगयुग सुस्थिर होय ।
दादू अविचल आतमा, काल न लागे कोय ॥३४०॥
(परिचय अंग ४)
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तुलसी नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! भक्त अविनाशी ब्रह्म का स्वरूप कब होता है ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवे राम रस, सो अविनाशी अंग ।
काल मीच लागे नहीं, दादू सांई संग ॥३४१॥
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उक्त उत्सव में एक डोंगसी नामक सज्जन भी आये थे । उन्होंने पू़छा - भगवन् ! आपने कहा कि ज्ञानी भक्त को काल नहीं खाता है सो उसमें क्या कारण है ? क्यों नहीं खाता है ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवै राम रस, सुख में रहै समाइ ।
मनसा वाचा कर्मणा, दादू काल न खाइ ॥३४४॥
फिर डोंगसी दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
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फिर पूरा नामक व्यक्ति ने पू़छा - भगवन् ! इस संसार में रहते हुये साधक काम क्रोधादि दुर्गुणों से और इस संसार के कैसे छूटते हैं ? दादूजी ने कहा -
परिचय पीवे राम रस, राता सिरजनहार ।
दादू कु़छ व्यापे नहीं, ते छूटे संसार ॥३४३॥
फिर पूरा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये दादूजी के सौ शिष्यों में हैं ।
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