मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

*~ थोलाई प्रसंग ~*


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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*~ थोलाई प्रसंग ~*
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आंधी से थोलाई के भक्त दादूजी को थोलाई ले आये । सत्संग चलने लगा । थोलाई में नगा नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! परमात्मा का साक्षात्कार कहां होता है ? तब दादूजी ने कहा -
जहां आत्म तहैं राम है, सकल रह्या भरपूर ।
अन्तरगत ल्यौ लाय रहु, दादू सेवक शूर ॥२१॥
(लै अंग ७)
फिर नगा दादूजी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में हैं ।
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फिर कला नामक व्यक्ति ने पू़छा - स्वामिन् ! आन्तर भक्ति की सामग्री बताने की कृपा कीजिये ? तब दादूजी ने कहा -
दादू अंतरगत ल्यौ लाय रहु, सदा सुरति से गाय ।
यहु मन नाचे मगन हो, भावै ताल बजाय ॥२२॥
दादू गावे सुरति से, वाणी बाजे ताल ।
यहु मन नाचे प्रेम से, आगे दीनदयाल ॥२३॥
(लै अंग ७)
फिर कला दादू जी के शिष्य हो गये थे । ये सौ शिष्यों में है ।
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फिर नृसिंहदास ने पू़छा - स्वामिन् ! अनुभव का हेतु कौन साधना माना जाता है ? तब दादूजी ने कहा -
दादू एक सुरति से सब रहैं, पंचों उनमनि लाग ।
यहु अनुभव उपदेश यहु, परमयोग बैराग ॥२५॥
(लै अंग ७)
फिर नृसिंहदास दादूजी के शिष्य हो गये । ये द्वितीय नृसिंहदास सौ में हैं ।

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