शनिवार, 6 दिसंबर 2014

*त्यौंद प्रसंग*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*त्यौंद प्रसंग*

फिर पादू से करडाले और करड़ाले से त्यौंद का रायसिंह क़छवाहा दादूजी को शिष्य सहित त्यौंद ग्राम में ले आया । त्यौंद में सत्संग होने लगा । एक दिन रायसिंह क़छवाहा ने पू़छा - स्वामिन् ! यह जीव मोह निद्रा से कैसे जाग सकता है ? तब दादूजी ने यह -
३४२ का पद -
सोई राम सँभाल जियरा, प्राण पिंड जिन दीन्हा रे ।
अम्बर आप उपावनहारा, मांहि चित्र जिन कीन्हा रे ॥टेक॥
चंद सूर जिन किये चिराका, चरणों बिना चलावै रे ।
इक शीतल इक तारा डोलै, अनन्त कला दिखलावै रे ॥१॥
धरती धरनि वरन बहु वाणी, रचिले सप्त समंदा रे ।
जल थल जीव सँभालनहारा, पूर रह्या सब संगा रे ॥२॥
प्रकट पवन पानी जिन कीन्हा, वरषावै बहु धारा रे ।
अठारह भार वृक्ष बहु विधि के, सबका सींचनहारा रे ॥३॥
पँच तत्त्व जिन किये पसारा, सब करि देखन लागा रे ।
निश्चल राम जपो मेरे जियरा, दादू तातैं जागा रे ॥४॥
सुनाया । तब रायसिंह समझ गया कि रामभजन से अन्तःकरण शुद्ध और स्थिर होने से ज्ञान होता है उसे ब्रह्मात्मा ज्ञान से मोह निद्रा नष्ट हो जाती है ।
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पद २१३ -
२१३. उत्तम स्मरण । ब्रह्म ताल
तूँ ही मेरे रसना, तूँ ही मेरे बैना,
तूँ ही मेरे श्रवना, तूँ ही मेरे नैना ॥टेक॥
तूँ ही मेरे आतम कँवल मंझारी,
तूँ ही मेरी मनसा, तुम पर वारी ॥१॥
तूँ ही मेरे मन ही, तूँ ही मेरे श्वासा,
तूँ ही मेरे सुरतैं प्राण निवासा ॥२॥
तूँ ही मेरे नखशिख सकल शरीरा,
तूँ ही मेरे जियरे ज्यों जल नीरा ॥३॥
तुम बिन मेरे अवर को नांही,
तूँ ही मेरी जीवनि दादू मांही ॥४॥
त्यौंद में जैसा नामक सज्जन ने दादूजी से पू़छा - स्वामिन् ! उत्तम स्मरण का प्रकार मुझे बताने की कृपा करैं तब दादूजी ने उक्त २१३ का पद सुनाकर बताया था । फिर वे दादूजी के शिष्य भी हो गये थे और दादूजी के साथ ही रहते थे । ये ५२ शिष्यों में हैं । नारायणा में ही रहे थे ।
(क्रमशः)

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