शनिवार, 6 दिसंबर 2014

१४. बचन बिवेक को अंग ~ १४

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥ 
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)* 
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी, 
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व 
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान) 
*१४. बचन बिवेक को अंग*
*बचन तैं जोग करै, बचन तै जज्ञ करै,* 
*बचन तैं तप करि, देह कौ दहतु है ।* 
*बचन तैं बंधन, करत है अनेक बिधि,* 
*बचन तैं त्याग करि, बन मैं रहतु है ॥* 
*बचन तैं उरझि रु, सुरझै बचन ही तैं,* 
*बचन तैं भांति भांति, संकट सहतु है ।* 
*बचन तैं जीव भयौ, बचन तैं ब्रह्म होइ,* 
*सुन्दर बचन भेद बेद यौं कहतु है ॥१४॥* 
*॥ इति वचनविवेक को अंग ॥१४॥* 
वचनों की प्रामाणिकता मानकर ही साधक अपने योग, यज्ञ, तप आदि क्लेश कर्मों में संलग्न करता है । 
वचनों के प्रभाव से ही वह अपने को विविध बन्धनों में बाँध लेता है । इनके प्रभाव से ही वह गृहत्याग कर वनवासी बन जाता है । 
वचनों के प्रभाव से यह वासनाओं(जगज्जाल) में फँसता भी है, तथा उन वासनाओं से मुक्त भी हो सकता है । उन्हीं वचनों के कारण यह अपने लिये विविध संकट उत्पन्न कर लेता है । 
वचनों के मानने से ही यह जीव बना तथा उन ही के प्रभाव से ही यह कभी ब्रह्म से अपनी एकता कर सकता है । *श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - यह केवल वचनभेद मानने पर ही सब कुछ हो रहा है - ऐसा वेद(शास्त्र) कहते हैं ॥१४॥ 
*॥ वचनविवेक को अंग सम्पन्न ॥१४॥* 
(क्रमशः)

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