मंगलवार, 13 जनवरी 2015

*~ शिष्यन को नाम दृढ़ाना प्रसंग ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*~ शिष्यन को नाम दृढ़ाना प्रसंग ~*
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दादू नीका नाम है, आप कहै समझाय ।
और आरम्भ सब छाड़ दें, राम नाम ल्यौ लाय ॥८॥
छिन छिन राम सँभालता, जे जिव जाय तो जाय ।
आतम के आधार को, नांहीं अन उपाय ॥११॥
दादू एक राम की टेक गहि, दूजा सहज सुभाइ ।
राम नाम छाड़े नहीं, दूजा आवे जाइ ॥१५॥
दादू निमष न न्यारा कीजिये, अंतर तैं उर नाम ।
कोटि पतित पावन भये, केवल कहतां राम ॥२५॥
कछू न कहावे आपको, सांई को सेवे ।
दादू दूजा छाडि सब, नाम निज लेवे ॥३॥
दादू कहतां सुनतां राम कहि, लेतां देतां राम ।
खातां पीतां राम कहि, आत्म कमल विश्राम ॥७४॥
दादू सब ही वेद पुराण पढ़ि, नेटि नाम निर्धार ।
सब कु़छ इनहिं मांहि है, क्या करिये विस्तार ॥८५॥
(स्मरण अंग २)
निज स्वरूप में प्रवेश के समय दादूजी ने उक्त साखियों द्वारा अपने शिष्य संतों को निरंजन राम का नाम हृदय में दृढता से धारण करने का उपदेश दिया था । 
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फिर गरीबदास आदि संतों ने प्रार्थना की - भगवन् ! इस शरीर को कु़छ समय और रखिये । तब दादूजी ने कहा - सब हरि की आज्ञानुसार ही होता है देखो बादल आदि हरि आज्ञा में हैं -
दादू एक शब्द से ऊनवे, वर्षण लागे आय ।
एक शब्द से बीखरे, आप आपको जाय ॥१३॥
(शब्द अंग २२)
नूर - तेज ज्यौं ज्योति है, प्राण पिंड यूँ होय ।
दृष्टि मुष्टि आवे नहीं, साहिब के वश सोय ॥१९८॥
(परिचय अंग ४)
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उक्त साखी के समान होते हैं उनको भी हरि आज्ञा माननी ही होती है । शरीर तो नहीं रहेगा किन्तु मेरे पांच हजार वचनों में मेरा तेज स्थित है । यह कहकर यह साखी बोली -
साधु जनकी वासना, शब्द रहे संसार ।
दादू आतम ले मिलै, अमर उपावनहार ॥४॥
(सजीवन अंग २६)

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