गुरुवार, 8 जनवरी 2015

*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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फिर हमीरसिंह धांदोलीवालों ने पू़छा - भगवन् ! आपको अति प्रिय क्या है ? तब दादूजी ने १०९ का पद -
ऐन एक सो मीठा लागै,
ज्योति स्वरूपी ठाढ़ा आगे ॥टेक॥
झिलमिल करणां, अजरा जरणां,
नीझर झरणां, तहँ मन धरणां ॥१॥
निज निरधारं, निर्मल सारं,
तेज अपारं, प्राण अधारं ॥२॥
अगहा गहणां, अकहा कहणां,
अलहा लहणां, तहँ मिल रहणां ॥३॥
निरसंध नूरं, सब भरपूरं, सदा हजूरं, दादू सूरं ॥४॥
उक्त पद सुनकर हमीरसिंह आश्चर्य में पड़ गये । कारण उन्होंने तो इसलिये पू़छा था कि स्वामीजी को जो वस्तु प्रिय होगी वही सेवा में उपस्थित करुंगा । अतः उन्होंने सुनकर प्रणाम ही किया ।
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फिर बाघसिंग कालखवालों ने पू़छा - भगवन् ! आपने गुरुज्ञान के द्वारा क्या निश्‍चय किया था ? तब दादूजी ने ९३ का पद -
९३. गरु ज्ञान । त्रिताल
ऐसा रे गुरु ज्ञान लखाया,
आवै जाइ सो दृष्टि न आया ॥टेक॥
मन थिर करूँगा, नाद भरूँगा,
राम रमूंगा, रस माता ॥१॥
अधर रहूँगा, करम दहूँगा,
एक भजूंगा, भगवंता ॥२॥
अलख लखूंगा, अकथ कथूंगा,
एक मथूंगा, गोविन्दा ॥३॥
अगह गहूँगा, अकह कहूँगा,
अलह लहूँगा, खोजन्ता ॥४॥
अचर चरूंगा, अजर जरूंगा,
अतिर तिरूंगा, आनन्दा ॥५॥
यहु तन तारूं, विषय निवारूं,
आप उबारूं, साधन्ता ॥६॥
आऊँ न जाऊँ, उनमनि लाऊँ,
सहज समाऊँ, गुणवंता ॥७॥
नूर पिछाणूं, तेजहि जाणूं,
दादू ज्योतिहि देखन्ता ॥८॥
बाघसिंह के प्रश्‍न का उत्तर सुन सभी प्रसन्न हो प्रणाम करके राजमहल को चले गये ।

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