शनिवार, 31 जनवरी 2015

२०. साधु को अंग ~ ११

#daduji

॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*कोउक निंदत कोउक बंदत,* 
*कोउक आइ कै दैत है भक्षन ।*
*कोउक आइ लगावत चंदन,* 
*कोउक डारत धुरि ततक्षन ॥*
*कोउ कहै यह मूरिख दीसत,* 
*कोउ कहै यह आहि विचक्षन ।*
*सुन्दर काहू सौं राग न द्वेष सु,* 
*ये सब जानहुं साधु के लक्षण ॥११॥*
*साधु - सन्तों के लक्षण* : कोई उस के पास आकर उसकी निन्दा करता है, कोई उसकी पूजा करता है, कोई आकर उसे भोजन कराता है ।
कोई आकर उसको चन्दन का लेप करता है; तो कोई, उसको अपमानित करने के लिए, उस पर धूल डालता है ।
कोई कहता है - यह साधु तो हम को मूर्ख(बिना पढ़ा - लिखा) दीखता है, कोई कहता है - यह बहुत बड़ा विद्वान है ।
*श्री सुन्दरदास जी* कहते हैं - वस्तुतः उस साधु का संसार के किसी भी प्राणी के प्रति न राग है न द्वेष; अतः ये ही सब कर्म साधु के लक्षण माने जाते हैं ॥११॥
(क्रमशः)

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