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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*~ त्रिपोलिया प्रसंग से आगे ~*
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छठे दिन मंत्री कपूरचन्द आदि के साथ नारायणा नरेश नारायणसिंह दादूजी के पास त्रिपोलिया पर आये और प्रणाम करके बैठ गये । फिर कपुचन्द ने पू़छा - स्वामिन् ! परबह्म का यथार्थ रूप कैसा है? तब दादूजी ने २४५ का पद कहा -
२४५. मल्लिका मोद ताल
ए हौं बूझि रही पीव जैसा है, तैसा कोइ न कहै रे ।
अगम अगाध अपार अगोचर, सुधि बुधि कोइ न लहै रे ॥टेक॥
वार पार कोइ अन्त न पावै, आदि अन्त मधि नांही रे ।
खरे सयाने भये दिवाने, कैसा कहाँ रहै रे ॥१॥
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर बूझै, केता कोई बतावै रे ।
शेख मुशायक पीर पैगम्बर, है कोइ अगह गहै रे ॥२॥
अम्बर धरती सूर ससि बूझै, बाव वर्ण सब सोधै रे ।
दादू चक्रित है हैराना, को है कर्म दहै रे ॥३॥
उक्त पद सुनकर सभी सभासद आश्चर्य चकित थे । फिर प्रणाम करके राजमहल को चले गये ।
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साधु मिलैं तब हरि मिलैं, सब सुख आनन्द मूर ।
दादू संगति साधु की, राम रहा भरपूर ॥२२॥
(साधू अंग १५)
और १९९ का पद -
१९९. संत समागम प्रार्थना । दादरा
निरंजन नाम के रस माते, कोई पूरे प्राणी राते ॥टेक॥
सदा सनेही राम के, सोई जन साचे ।
तुम बिन और न जानहीं, रंग तेरे ही राचे ॥१॥
आन न भावै एक तूँ , सति साधु सोई ।
प्रेम पियासे पीव के, ऐसा जन कोई ॥२॥
तुम हीं जीवन उर रहे, आनन्द अनुरागी ।
प्रेम मगन पीव प्रितड़ी, लै तुम सौं लागी ॥३॥
जे जन तेरे रंग रंगे, दूजा रंग नांही ।
जन्म सुफल कर लीजिये, दादू उन मांहीं ॥४॥
जब नारायणा में भूतकाल के संत पधारे थे तब उक्त साखी और पद कहा था ।
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