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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मोरड़ा प्रसंग*
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फिर करड़ाले से मोरड़ा पधारे । मोरड़ा के तालाब पर ठाकुरदासजी के शिष्य और दादूजी के पौत्र शिष्य दासजी ने अपनी विशालवाणी की पुस्तक दादूजी के सामने रखी । तब दादूजी ने पू़छा रामजी ! ये क्या है ? दासजी ने कहा - यह जगतारण जहाजरूप मेरी वाणी है । यह सुनकर दादूजी ने कहा -
मसि कागज के आसरे, क्यों छूटे संसार ।
राम बिना छूटे नहीं दादू भरम विकार ॥
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फिर मोरड़े मे वि.सं. १६५९ लगा तब परमात्मा ने दादूजी को संकेत द्वारा सूचित किया कि - वि. सं. १६६० में तुमको संसार छोड़ना है । तब दादूजी ने कहा -
ज्यों तुम भावे त्यों खुसी, हम राजी उस बात ।
दादू का दिल सिदक से, भावे दिन हो(को) रात ॥
(उक्त साखी में "हो" के स्थान में "को" भी मिलता है । यह ध्यान रहै ।)
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