शनिवार, 14 फ़रवरी 2015

|| दादूराम सत्यराम ||
"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)" लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान |
= अथ पंचम बिन्दु = 
प्रभु का दर्शन - दादूजी को प्रणाम करके वह अप्सरा स्वर्ग में जाकर देवराज को बोली - आपने मुझे जिन के पास भेजा था, वे तो परम निष्काम ज्ञानी संत हैं | उन्हें आपके पद की लेश मात्र भी इच्छा नहीं है | मैंने सर्व प्रकार की चेष्टायें करके उनकी अच्छी प्रकार परीक्षा की है | उनसे आपको लेशमात्र भी शंका नहीं करनी चाहिये | उनकी ओर से तो आप परम निर्भय रहें | उनके भजन में आपको विघ्न करने का विचार फिर कभी भी नहीं करना चाहिये | वे तो सर्वात्मरूप संत हैं | उनसे तो किसी भी प्रकार से किसी भी प्राणी का अनहित नहीं हो सकता | मेरा तो ऐसा ही निश्चय है | अप्सरा की वार्ता सुनकर इन्द्र निश्चिन्त हो कर परमानन्द में निमग्न हो गये | इधर दादूजी का वह तपस्या का कार्य-क्रम छः वर्ष तक चलता रहा | अंत में प्रभुने आपको दर्शन दिया और कहा - अब मौन रखना त्याग दो, अधिकारियों को अधिकारानुसार उपदेश दो | तरु पत्ते छोड़ कर दूध पान किया करो, कहा भी है -
छप्पय - 
"प्रभु आज्ञा तज मौन, पात तरु भोजन त्यागी | 
लीजे भोजन दूध, देत दर्शन बड़ भागी || 
आदित्य कोटि प्रकाश, तासु तन शोभा सोहै | 
दे जनको वरदान, देख साधन मन मोहै ||
भये जु अन्तर्धान प्रभु, दुग्ध पान भोजन किये | 
दादू दीन दयाल को, करडाले दर्शन दिये || 
(संत गुण सागर तरंग ३) 
प्रभु का अद्भुत स्वरूप देखकर दादूजी परमानन्द में निमग्न हो गये | फिर प्रभु ने वर माँगने को कहा - तब दादूजी बोले, प्रभो ! आपने जो काँकरिया तालाब पर निर्गुण भक्ति का उपदेश किया था, वह निर्गुण भक्ति मेरे ह्रदय में सदा बनी रहनी चाहिये | तथा उस का उपदेश द्वारा सदा विस्तार करता रहूँ यही वर मुझे दीजिये | दादूजी की इच्छानुसार उक्त वर देकर प्रभु वहां ही देखते देखते अन्तर्धान हो गये | 
(क्रमशः)

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