॥ श्री दादूदयालवे नमः॥
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*सवैया ग्रन्थ(सुन्दर विलास)*
साभार ~ @महंत बजरंगदास शास्त्री जी,
पूर्व प्राचार्य - श्री दादू आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(जयपुर) व
राजकीय आचार्य संस्कृत महाविद्यालय(चिराणा, झुंझुनूं, राजस्थान)
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*२०. साधु को अंग*
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कूप मैं कौ मींडूका तौ कूप कौ सराहत है,
राजहंस सौं कहै कितौक तेरौ सर है ।
मसका कहत मेरी सरभरि कौंन उडै,
मेंरै आगै गरुड़ की कितीयक जर है ॥
गुबरेला गोली कौ लुढ़ाई करि मानै मोद,
मधुप कौ निंदत सुगंध जाकौ घर है ।
आपुनि न जांनै गति संतनि कौ नांम धरै,
सुन्दर कहत देखै ऐसौ मूढ़ नर है ॥२५॥
सन्तों पर दोषारोपण मूर्खता : कूए में रहने वाला मेंढक अपने कुए की ही प्रशंसा करता है; परन्तु वह नहीं जानता कि राजहंस के विशाल मानसरोवर के सम्मुख उसके छोटे से कूप की कोई गणना नहिं है ।
इसी तरह मच्छर कहता है कि उसके उड़ने की शक्ति की कौन समानता कर सकता है, परन्तु वह क्या जाने कि गरुड़ पक्षी कितनी शीघ्रगति से उड़ता है या उसके सन्मुख उसकी कितनी शक्ति है ।
इसी तरह गोबर का कीड़ा गोबर की गोली को इधर उधर लुढ़का कर ही प्रसन्नता अनुभव करता है; तथा मधुकर की निन्दा करता है; परन्तु वह नहीं जानता कि मधुकर के सुगन्धित पुष्प ही निवास है ।
श्री सुन्दरदास जी कहते हैं - इस प्रकार से अज्ञानी पुरुष अपने विषय में तो कुछ जानते नहीं और सन्तों पर दोषारोपण करते हैं; इस में इनकी मूर्खता ही मुख्य कारण है ॥२५॥
(क्रमशः)

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