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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ पंचम बिन्दु ~*
*= सांभर गमन =*
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(कबीरजी के समान इनमें भी जातिवाद का प्राधान्य नहीं था । यह भी 'करणी ऊपर जाति है' अर्थात् कर्म पर ही जाति निर्भर है । जैसा कर्म करता है वैसी उसकी जाति मानी जाती है, कहते थे ।) दादूजी हिन्दू तथा मुसलामानों की पक्ष नहीं करते थे, षट्दर्शन जोगी(नाथ) जंगम, यति, बौध, सन्यासी और शेख के रंग में भी नहीं रंगे थे । किसी संप्रदाय के चिन्ह भी नहीं रखते थे, न किसी भेष व पंथ का पक्ष रखते थे ।
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देवी देवता की पूजा भी दादूजी नहीं करते थे । तीर्थ व्रत आदि भी नहीं करते थे किन्तु पूर्णब्रह्म को सत्य जानकार उसी के चिन्तन में निमग्न रहते थे । इनकी साधन पद्धिति संप्रदायवाद से भिन्न ही थी । ये राव, रंक, गृहस्थ, विरक्त आदि सबको समभाव से ही देखते थे । ये भेष पंथ के संबन्ध से किसी से नहीं मिलते थे । परमात्मा के संबन्ध से ही सबसे मिलते थे । इन्होंने कहा भी है - "साहिब के नाते मिले भेष पंथ के नांहिं ।"
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सांभर पहुँचने का समय जनगोपालजी ने इस प्रकार लिखा है -
"सांभर आये समै पचीसा ।
गरीबदास जन्मे बत्तीसा ॥"
(अंतिम विश्राम) ।
उस समय छत्री के चारों ओर पानी भरा था । सांभर के लोग इनको छत्री पर कई दिनों तक देखकर अति आश्चर्य करने लगे थे और सोचते थे कि ये क्या खाते पीते होंगे । छत्री पर आने जाने का मार्ग तो पानी से रुका हुआ है । वहां भोजन तथा जल कोई पहुँचा भी कैसे सकेगा ?
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फिर एक दिन एक बीठलव्यास नामक विद्वान् ब्राह्मण ने ने दादूजी की चर्चा सर्वसाधारण व्यक्तियों से सुनि तब सर - तट पर जाकर बीठलव्यास ने छत्री पर संत प्रवर दादूजी को देखा और मन में संकल्प किया, ये तो कोई महापुरुष ज्ञात होते हैं । ये क्या खाते पीते होंगे ? यह भी पास जाने से ही ज्ञात होगा, पर जाऊं कैसे, चारों ओर जल भरा है, मार्ग तो है ही नहीं ।
(क्रमशः)

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