#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
आपा मेटै हरि भजै, तन मन तजै विकार ।
निर्वैरी सब जीव सौं, दादू यहु मत सार ॥
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@Sriman Narayan Shakyamuni Siddhārtha Gautama Buddha
सारि पुत्र को एक ब्राह्मण द्वारा लात मारना (कथा यात्रा)
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सारि पुत्र बुद्ध भगवान के उन अभूतपूर्व शिष्यों में से एक है... जो भगवान के जीते जी ब्रह्म ज्ञान को उपलब्ध हो गये थे। सारी पुत्र पंडित था, ज्ञानी था। बोघिक प्रतिभा का व्यक्ति था उसे के पाँच सो भिक्षु थे। जब वह भगवान से तर्क करने के लिए आया था। पर भगवान की छवि देख, उनका सौम्य रूप, उनका लावण्य, उनकी आभा, उनका तेज देख कर उसके सारें उत्तर गिर गये। प्रश्न तो थे ही नहीं उसके पास वह तो भगवान को उत्तर देने के लिए आया था। जीवन भर भगवान के साथ रहा पर कभी कोई प्रश्न नहीं पूछा।
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बड़ा संवेदन शील रहा होगा। पांडित्य तो था, लेकिन पांडित्य पर बहुत पकड़ नहीं होगी। उससे उपर देखने की क्षमता जरूर रही होगी। जब गुरु ने ही हथियार डाल दिये तो बेचारे शिष्य क्या करते। सारि पुत्र ने कहा यह आदमी विवाद करने जैसा नहीं है। तुम ने मुझे अगर थोड़ा भी जाना है तो बैठ जाओ इनके चरणों में। खुद झुक और अपने शिष्यों को भी सही मार्ग दिखाया। और देखते ही देखते सारि पुत्र में फूल खिलनें लग गये। उसके आस पास भी भगवान जैसी शीलता फैलने लगी। सुवास उठने लगी। और जल्द ही उपलब्ध हो गया।
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श्रावस्ती निवासी सीधे-साधे भोले लोग। सारिपुत्र के गुणों की प्रशंसा कर रहे थे। गुण तो ऐसे थे सारी पुत्र में जिन की प्रशंसा की ही जाए। लेकिन एक बुद्ध विरोधी ब्रह्मण भी वहीं बैठा था। उस ने कहा तुम्हें उसे क्रोधित करना आता ही नहीं। फिर किसी ने कहां कि हमारे आर्य तो ऐसे है कि उनकी सहन शीलता का तो कोई जवाब ही नहीं। उन्हें तो मारने वाले पर भी क्रोध नहीं आता। ये बात उस मिथ्या दृष्टि ब्रह्मण को चुभ गई। वह तो पहले ही जला भुना बैठा था। इस बात ने और आग में घी का काम किया।
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मिथ्या दृष्टि का अर्थ होता है। जिसे उलटा देखने की आदत हो। उलटी खोपड़ी जो सीधी बात को भी उलटा देखे। मिथ्या दृष्टि किसी की प्रशंसा बर्दाश्त नहीं कर सकता हे। क्योंकि उसके अंदर एक हीनता है। वह किसी की प्रशंसा को अपनी निंदा समझता है। दूसरा बड़ा हो गया, और मैं छोटा हो गया। यह उसका तर्क है। लेकिन एक बड़े मजे की बात है। मिथ्या दृष्टि किसी की निंदा सुन सकता है। यह उसके अंहकार का भरण पोषण करती है।
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वह मानता है अच्छा यह भी चरित्रहीन है मैं तो पहले ही जानता था। देखा तर्क आप किसी को यह कह दो की वह आदमी तो संत हो गया। पचास बातें लगाएंगे, सो तर्क करेंगें, हजार दलीलें देंगे। कि वह हो ही नहीं सकता। और आप यह कह दो की वह आदमी तो चोर है। वह झट से मान जाएगा। कि मैं तो पहले ही मानता था। उसके लिए कोई प्रमाण की जरूरत नहीं होगी।
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कहीं भी कुछ गलत कैसे खोज ले। अब वह मिथ्या दृष्टि ... ये मानने को तैयार ही नहीं है कि सारि पुत्र को क्रोधित नहीं किया जा सकता। उसने कहां ये बात तुम मुझ पर छोड़ दो में तुम्हें तुम्हारे आर्य को क्रोधित कर के दिखाता हूं। नगर वासी हंसे। कभी भोले भाले लोग ज्यादा समझदार सिद्ध होते है। बोघिक पंडित हार जाते है। उस ब्राह्मण ने पीछे से जाकर जब सारिपुत्र भिक्षाटन को जा रहे थे तो उनकी पीठ पर लात मारी। लेकिन स्थविर ने तो पीछे मुड़ कर देखा भी नहीं। निष्प्रयोजन। भगवान ने कहां था। जरा भी उर्जा नहीं बहाना। जहां नहीं देखने में सार हो ... वहां मत देखना। व्यर्थ को देखने में क्या लाभ है। व्यर्थ को न सुनना, न विचार करना। सार्थक की और ध्यान देना।
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भगवान ने कहा था जब जाना ही है तो मंजिल पर तब नाहक अपनी शक्ति को बर्बाद मत करना। सारी शक्ति को एक तरफ ही लगा देना। सारिपुत्र ने तो पीछे मुड़ भी नहीं देखा। लात तो जैसे हमे लगती है ऐसी ही सारिपुत्र को भी लगी। और कहीं अधिक क्योंकि वह तो जगा था। एक शराबी को कोई लात मारे तो वह सुबह बात भी नहीं पायेंगे की रात क्या हुआ था।
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पर सारिपुत्र का बोध तो प्रगाढ़ था। वह तो पूर्ण जागरूक हो गया था। सारी पुत्र ध्यान के शिखर पर था। जहां से गिरा हुआ आदमी जन्मों-जन्मों के लिए भटक सकता है। वे ध्यान में जागे, ध्यान के दीए को संभाले चलते रहे। उलटे उन के मन में प्रसन्नता ही हुई होगी, कि साधरणतया: ऐसी स्थिति में मन डाँवा डोल हो जाता है। देखा की मन डावा डोल नहीं हुआ। चोट पड़ी—और चोट नहीं हुई।
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हवा का झोंका आया और गुजर गया। उनके चेहरे पर प्रसन्नता फेल गई। ह्रदय कमल खिल गया। और कहां होगा- अहोभाग्य। एक प्रकृति है देह की; एक प्रकृति है आत्मा की। देह की प्रकृति में पहली बात घटेगी। आत्मा की प्रकृति में जो उतरने लगा उसे दूसरी बात घटेगी।
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उन्होंने उस ब्राह्मण को भीतर-भीतर धन्यवाद दिया। तूने मुझे मेरी ज्योति को देखना को मौका तो दिया। की वह कितनी थिर हो गई है। इस घटना ने अंधे को आंखे दे दीं। वह सारिपुत्र के चरणों में गिर गया। और प्रार्थना करने लगा की आप उनके घर चले। थोड़ा मौका दे सेवा का और भोजन भी ग्रहण करे।
सारि पुत्र ने हंस कर कहा कि अभी तो की थी सेवा और क्या घर ले जाकर करना चाहते हो।
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उस ब्राह्मण की आंखों से पश्चात के आंसू बहने लगे। उसने सारि पुत्र के चरणों को छोड़ा ही नहीं और सर रख उन्हें आंसुओं से धो दिया। अगर आप घर नहीं चलेंगे तो मैं यह कदम नहीं छोड़ूगा। उसकी आंखों में पश्चाताप के आंसू भरे थे। और वे आंसू उसके अंतस के कल्मष को बहाकर ले गये उसकी आत्मा को निर्मल कर गये।
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उसने सारिपुत्र के निमित पहली बार बुद्ध की किरण उतरते देखी। शिष्य ही तो आईना होता है गुरु का। एक छोटी छवि। एक दीपक, जो सूर्य की किरणों की आभा की बात बता रहा है। कि में तो मात्र क्षण हूं, पूर्ण को जब देखोगे तो तुम्हारी आंखें चुँधियाना जायेगी। उस ब्राह्मण को लगा की जब सारिपुत्र ही ऐसे है तो इनका गुरु भगवान कैसा होगा। इसकी तो कल्पना भी उसके बाहर की बात हो गई।
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लेकिन और भिक्षुओं को यह बात जंची नहीं। उन्होंने भगवान से कहा: आयुष्मान सारि पुत्र ने अच्छा नहीं किया। जो उस मारने वाले ब्राह्मण के घर जाकर भोजन ग्रहण किया। अब तो वह किसी को भी नहीं छोड़ेगा। वहां से तो हमारा आना जाना दुष्कर हो जायेगा। उसको तो मारने की लत ही पड़ जायेगी। अब तो वह भिक्षुओं को मारने पर विचार भी नहीं करेगा।
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शास्ता ने भिक्षुओं से कहां: भिक्षुओं, ब्राह्मण को मारने वाला ब्राह्मण नहीं है। गृहस्थ ब्राह्मण द्वारा श्रमण-ब्राह्मण मारा गया होगा। और सारिपुत्र ने वहीं किया जो ब्राह्मण के योग्य है। फिर तुम्हें पता भी नहीं है। सारिपुत्र के ध्यान पूर्ण व्यवहार ने एक अंधे को आंखे प्रधान कर दी। ब्राह्मण के लिए यह कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह प्रिय पदार्थों से मन को हटा लेता है। जहां-जहां मन हिंसा से निवृत्त होता है। वहां-वहां दुःख शांत हो जाता है।
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न जटा से, न गोत्र से, न जन्म से ब्राह्मण होता है।
जिसमें सत्य और धर्म है, वहीं शुचि है और वही ब्राह्मण है।
तेरा अंतर तो विकारों से भरा है, बाहर क्या धोता है?
जो सारे संयोजनों को काट कर भयरहित हो जाता है,
उस संग और आसक्ति से विरत को मैं ब्राह्मण कहता हूं

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