सोमवार, 23 फ़रवरी 2015

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६(गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१४१. समर्थाई । राजमृगांक ताल
सिरजनहार तैं सब होइ ।
उत्पत्ति परलै करै आपै, दूसर नांहीं कोइ ॥टेक॥
आप होइ कुलाल करता, बूँद तैं सब लोइ ।
आप कर अगोचर बैठा, दुनी मन को मोहि ॥१॥
आप तैं उपाइ बाजी, निरखि देखै सोइ ।
बाजीगर को यहु भेद आवै, सहज सौंज समोइ ॥२॥
जे कुछ किया सु करै आपै, येह उपजै मोहि ।
दादू रे हरि नाम सेती, मैल कश्मल धोइ ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव ईश्‍वर समर्थाई दिखा रहे हैं कि हे जिज्ञासुओं ! वह परमात्मा सर्व की उत्पत्ति करने वाले हैं, उनकी समर्थाई बड़ी भारी है । वह सम्पूर्ण सृष्टि की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाले हैं । वह अपनी समर्थाई से ही प्रलय आदि सब कुछ करते हैं ।
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आप स्वयं कुलाल की भाँति कर्ता हो रहे हैं । पानी की बूँद से कहिए वीर्य आदि से सम्पूर्ण शरीरों की रचना करके उनमें छुप कर आप ही बैठे हैं और मन इन्द्रियों के अविषय हो रहे हैं । और दुनियाँ के मन को अपनी मायावी लीला से मोहित कर रखा है ।
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आप स्वयं अपने आपसे जगत रूपी खेल को रचकर आप ही दृष्टा रूप बनकर देख रहे हैं । उसी ईश्‍वर रूप बाजीगर को, इस जगत रूप बाजी रचने का भेद मालूम है । सहज स्वभाव से ही स्त्री आदि शरीर रूप सौंज बनाकर प्राणीमात्र को मोहित कर लिया है ।
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यह जो कुछ भी लिया है, सो आप परमेश्‍वर ने ही किया है । यही हमारे अन्दर उसका ज्ञान उत्पन्न हो रहा है । इस प्रकार तत्ववेत्ता कहते हैं कि हे मुमुक्षुओं ! निष्काम हरिनाम - स्मरण द्वारा अपने अन्तःकरण के मैल, पाप आदि को धोइये ।
(क्रमशः)

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