रविवार, 15 फ़रवरी 2015

= १६१ =

daduji
卐 सत्यराम सा 卐
इन्द्रिन के सुख मानत है सठ, 
याहि तैं तू बहुतै दुख पावै ।
ज्यूं जल में झख मांसहि लीलत, 
स्वाद बंध्यो जल बाहर आवै ॥
ज्यू कपि मूठि न छाड़त है, 
रसना रस बंध पर्यो बिललावै ।
सुन्दर क्यूं पहिले न संभारत, 
जो गुड़ खाइ सु कान बिंधावै ॥
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साभार : पँ. शिवप्रसाद त्रिपाठी 'आचार्य' ~ 
भवाटवी का अर्थ परीक्षित को समझाते हुए शुकदेव जी वोले - हे राजन ! इस संसार रुपी वन मेँ जीव धनोपार्जन मेँ लगे वणिकोँ के समान है । जो प्रभु माया से संसार मार्ग मेँ पतित होते हैँ । यह संसार मार्ग अत्यन्त दुर्लभ है । जो देह को आत्मा मानते हैँ, उनके गुणोँ के विभाग से प्रत्येक जन्म मेँ शुभ अशुभ कर्म मिलजाते हैँ उनके प्रभाव से विभिन्न प्रकार के देहोँ की रचना होने के कारण संयोग वियोग आदि वाला संसार होता है । 
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इस संसार रुपी वन मेँ अपने कर्मो के कारण चोर रुपी इन्द्रियाँ हैँ । यही चोर रुपी इन्द्रियाँ मनुष्य द्वारा कमाये हुए धन का विपरीत मार्गों मेँ अपव्यय करती हुई हर लेती हैँ । किन्तु विषय भोग में लगे रहने वाला मनुष्य उन चोर इन्द्रियोँ की करतूतो को जान नहीँ पाता । जिस प्रकार किसी खेत मे प्रतिवर्ष हल जोता जाए तो उस खेत का बीज नष्ट नहीँ होता वरन बीज वपन के समय तृण लता गुल्म आदि के उपजने से दुर्ग के समान नष्ट हो जाता है । 
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इसी प्रकार गृहस्थाश्रम को समझें । इसमेँ कर्मों की उपज होती है यह कर्मों का दुर्ग आश्रम रूप है । जैसे कर्पूर पात्र से कर्पूर निकाल ले तो भी उसकी गन्ध रहती है उसी प्रकार वासना के बने रहने से कर्म छूट नहीँ पाते वरन् बारम्बार उत्पन्न होते हैँ ।
"पंचतत्व के देह मेँ करे आत्म अनुमान ।
बन्धन में जकड़े रहेँ सत्य जगत को जान ॥"

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