#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
बेर बेर कह्यो तोहि सावधान क्यूँ न होइ,
ममता की मोट सिर काहे कूँ धरत है ।
मेरो धन मेरो धाम, मेरे सुत मेरी बाम,
मेरे पसू मेरो ग्राम, भूल्यो यूं फिरत है ।
तूँ तो भयो बावरो बिकाइ गई बुद्धि तेरी,
ऐसो अंध कूप गृह तामें तूँ परत है ।
‘सुन्दर’ कहत तोहि नेक हू न आवे लाज,
काज को बिगार के अकाज क्यों करत है ॥
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साभार : अशोकानंद भरद्वाज ~
आप सभी से निवेदन है कि अगर समय हो तो अवश्य पढ़ें :
किसी एक नगर में कुटिया बनाकर एक सन्त रहते थे। भक्त लोग उनका सत्संग करने हर रोज आते थे। एक समय नगर के बाहर राजा के बगीचे में भी एक महात्मा आकर ठहरे । वह भी सत्संग करते थे । राजा के सहित नगरवासी भक्त लोग भी उनका सत्संग करने जाते थे । एक रोज बगीचे वाले संत बोले - अब हम अमुक दिन यहाँ से प्रस्थान करेंगे ।
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तब भक्त लोग नगर में रहने वाले संत को बोले : "महाराज ! आप सत्संग थोड़ी देर किया करो, क्योंकि वे बगीचे में जो संत ठहरे हुए हैं, वे कुछ दिन बाद प्रस्थान करने को कहते हैं, इसलिए उनका सत्संग हमको मिलना फिर कठिन है । आप के प्रवचन तो हम सुनते ही रहेंगे । आप हमें आज्ञा दो, जिससे हम उनके प्रवचन सुन सकें ।'' महात्मा जी बोले "अभी तो वे कीचड़ में दबे हैं ।''
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कुछ देर बाद भक्तों ने फिर पूछा : महाराज ! अब हम लोग जाएँ ? महात्मा जी बोलो : "हाँ, अब जाओ । अब वे नहा धोकर बैठे हैं, दर्शनों का फल होगा ।'' भक्त लोग चले और बगीचे में पहुँच कर संत जी के दर्शन किए । संत बोले : इधर - उधर क्या देख रहे हो ? भक्त बोले : महाराज हमारे नगर के संत ने कहा था, "आप कीचड़ में दबे हैं । वह कीचड़ हम देख रहे हैं, हमें कहीं दिखाई नहीं पड़ता ?''
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संत : "उन्होंने सत्य ही कहा है । मेरे प्रवचन में आपको मालूम है, राजा साहब आते हैं । और मेरे पीछे के कुटुम्बी, भाई इत्यादि आए थे, जो मुझ से बोले : आपके पास राजा आते हैं । आप राजा से बोल दो कि राजन् ! इन बेचारों के ऊपर जो मुकदमा विपक्षी के द्वारा चलाया जा रहा है, वह सरासर झूठा है । इसको खत्म करवा दो । जिससे हम दंड से बच जाएंगे । मैंने उनसे कहा : तुम कल आ जाना । मैं राजा से कह दूंगा ।
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परन्तु रात्रि को जब मैंने विचार किया, मैं राजा से क्या कहूँगा ? गरीब बताऊँगा तो राजा बोलेगा : महाराज, आपको राजकथा से क्या प्रयोजन ? आप तो संत हैं । अगर मैं यह कहूँगा कि ये मेरे कुल - बांधव हैं, तो राजा बोलेगा : "आप अभी तक कुल का मोह लिये ही बैठे हो क्या ? आपके तो सम्पूर्ण संसार के प्राणी ही कुटुम्ब हैं ।'' तब मुझे पता चला कि मैं इस संसार के कीचड़ में पड़ गया था । "हे भगवान् ! मुझे सद्बुद्धि दो ।"
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तब परमेश्वर ने मेरा भ्रम दूर करके सद्बुद्धि दी और मैं परमेश्वर का भजन करने लगा । यही मेरा स्नान है । इससे मेरा कुलरूपी कीचड़ से मन धुल गया । अब आपको मेरे दर्शनों का पुण्य हुआ है । उस महापुरुष ने आपको सत्य ही कहा था ।'' ये सुनकर सभी भक्तों ने निश्चय किया कि कुल का कीचड़ वास्तव में ही भारी कीचड़ है, इससे तो कोई संत ही निकल सका है । मन परमेश्वर में लगने से पापरूपी कीचड़ धुल जाता है और मन परमेश्वर से विमुख होने पर पापरूपी कीचड़ में दब जाता है ।
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