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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ पंचम बिन्दु ~*
*= सांभर गमन =*
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मोरड़ा से विचरते हुये सांभर के सर में एक छत्री थी उस पर जाकर विराजे थे । तब आपकी निर्गुण ब्रह्म की विरह - प्रीति अत्यधिक बढ़ गई थी, उससे वृत्ति परब्रह्म में विलीन होकर सहज समाधि में लगी रहती थी और अन्तरहृदय में ज्योति जाग गई थी । नख से शिखा पर्यन्त के प्रत्येक रोम से नाम स्मरण होने लगा था, बाह्य ज्ञान नहीं रहता था । भीतर झिलमिल - २ करता हुआ प्रकाश प्रतीत होता था, जिसे देखकर प्राणी जीवन सफल समझता है ।
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इन दिनों दादूजी के मुख कमल से अनुभव रूप वाणी भी अधिक निकलने लगी थी । उसका कुछ संग्रह भी हो गया था । उसी समय तत्काल ही किसी के द्वारा कबीरजी की वाणी रूप से कबीर मिले । (निर्गुण उपासना करने वाले संतवाणी को ही संत का रूप मानते हैं, उसकी पूजा करते हैं आरती उतारते हैं, भोग लगाते हैं । इसलिये वाणी को ही कबीर का मिलना कहा है । शरीर से तो कबीरजी का मिलना संभव नहीं है, क्योंकि दादूजी के प्रकट होने से बहुत पहले कबीरजी ब्रह्मलीन हो गये थे ।)
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उस वाणी के विचार ने आपकी अन्तर्वृत्ति रूप समाधि को जगा दिया था । अर्थात् वाणी विचार में लग गये थे । उस वाणी से आपकी ब्रह्मगोष्टी(विचार) में रुचि बढ़ गई थी । फिर उस कबीर वाणी के पदों से अपने पद, साखियों से अपनी साखियाँ और उनमें रहनी कहनी के विचार सब समान ही कथित थे । इस से जब से वाणी रूप में कबीर मिले तब से दादूजी को विश्वास हो गया कि कबीरजी के और मेरे विचार समान ही हैं ।
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(कबीरजी के समान इनमें भी जातिवाद का प्राधान्य नहीं था । यह भी 'करणी ऊपर जाति है' अर्थात् कर्म पर ही जाति निर्भर है । जैसा कर्म करता है वैसी उसकी जाति मानी जाती है, कहते थे ।) दादूजी हिन्दू तथा मुसलामानों की पक्ष नहीं करते थे, षट्दर्शन जोगी(नाथ) जंगम, यति, बौध, सन्यासी और शेख के रंग में भी नहीं रंगे थे ।
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किसी संप्रदाय के चिन्ह भी नहीं रखते थे, न किसी भेष व पंथ का पक्ष रखते थे । देवी देवता की पूजा भी दादूजी नहीं करते थे । तीर्थ व्रत आदि भी नहीं करते थे किन्तु पूर्णब्रह्म को सत्य जानकार उसी के चिन्तन में निमग्न रहते थे । इनकी साधन पद्धिति संप्रदायवाद से भिन्न ही थी । ये राव, रंक, गृहस्थ, विरक्त आदि सबको समभाव से ही देखते थे । ये भेष पंथ के संबन्ध से किसी से नहीं मिलते थे । परमात्मा के संबन्ध से ही सबसे मिलते थे । इन्होंने कहा भी है - "साहिब के नाते मिले भेष पंथ के नांहिं ।"
(क्रमशः)

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