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*#श्रीदादूचरितामृत*, *"श्री दादू चरितामृत(भाग-१)"
लेखक ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज,
पुष्कर, राजस्थान ।*
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*~ चतुर्थ बिन्दु ~*
*= करडाले के प्रेत की मुक्ति =*
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दादूजी के पधारने से पहले वहां एक प्रेत रहता था, उस प्रेत के भय से वहां कोई भी नहीं आता था । दादूजी के पधारने से वहां के लोग आने लगे । वेह प्रेत एक दिन सांयकाल आरती गाते समय आया और कुचेष्टा करने लगा, उससे आरती गाने वालों की लय भंग हो गई । उनको विक्षिप्त देख कर दादूजी ने पूछा क्या बात है ? क्यों डर रहे हो ?
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आरती गाने वाले संत तथा भक्तों ने कहा - कोई प्रेत ज्ञात होता है, वह अपनी कुचेष्टाओं से विघ्न डाल रहा है । तब दादूजी ने भी उसको देखा और दयापूर्वक उस पर अपने कमण्डल का जल डालकर उसको प्रेतयोनि से मुक्त कर दिया । वह तत्काल एक सुन्दर पुरुष के रूप में बदल गया । और दादूजी को प्रणाम करके तथा हाथ जोड़ के सामने खड़ा हो गया ।
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तब दादूजी ने पूछा - तुम कौन हो ? उसने कहा - भगवन् ! मैं पहले इसी ग्राम का ग्वाल था । इन पास की पहाड़ी में पशु चराया करता था । एक समय इस पहाड़ी पर एक महात्मा आ गये थे, वे पहाड़ी की एक शिला पर बैठे २ भजन ही करते रहते थे, कहीं जाते आते नहीं थे । मेरी माँ मुझे दो रोटी देती थी और एक जल का पात्र भी भर देती थी । मैं उन दो रोटियों में से एक रोटी प्रति दिन महात्मा जी को देता था और मैं एक ही रोटी खाकर रह जाता था ।
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अपने जलपात्र से उनको जल भी पिला देता था । यह रोटी तथा जल देने की बात मैंने मेरे घर वालों को नहीं कही थी । इस प्रकार चिरकाल तक वे महात्मा उस शिला पर भजन करते रहे । फिर जब उनको विचरने की इच्छा हुई, तब वे एक दिन मेरे को बोले - भैया तुमने हमारी बहुत सेवा की है, अब हम यहां से विचरने वाले हैं । अतः तेरी इच्छा हो वही एक वर माँगले ।
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मैंने कहा - भगवन् ! मेरी आयु बड़ी हो जाय यही वर आप मुझे कृपा करके दें महात्माजी ने कहा - "बड़ी आयु तो प्रेत की होती है, तू प्रेत हो जा" फिर मैं अत्यन्त दुःखी होकर महात्माजी से बोला - भगवन् ! यह आपने मुझे शाप दिया है । मुझे अति आश्चर्य हो रहा है, क्या संत सेवा का फल भी शाप होता है ?
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महात्माजी ने कहा - यह शाप नहीं है वर ही है । मैंने पूछा कैसे ? वे बोले इस प्रेत योनि में तेरे को ब्रह्म स्वरूप सनक जी के अवतार संतप्रवर दादूजी का दर्शन होगा । उनके दर्शन से तेरी प्रेतयोनि छूट जायगी फिर उसी समय उत्तम लोक को प्राप्त हो जायगा । तू चिन्ता मत कर । यह कहकर संत तो विचर गये, फिर मेरा देहांत होने पर मैं प्रेत होकर यहां रहने लगा । कृपया चिरकाल से आज महात्माजी की वाणी सत्य हो गई है ।
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मैं आप के दर्शन से धन्य हो गया हूं । मुझे आप साक्षात् परमेश्वर रूप ही भास रहे हैं । फिर उसने प्रदक्षिणा करके दंडवत प्रणाम किया और बोला - आप की कृपा से अपने किये हुये सुकृतों का फल भोगने के लिये मै इसी क्षण स्वर्ग जाने वाला हूं । आप मुझ पर दया रखना । इतना कह कर वह ही वहां अन्तर्धान हो गया । फिर स्वर्ग को चला गया । संतों के दर्शन का महात्मय तथा फल ऐसा ही होता है, प्राणी का तत्काल ही कल्याण हो जाता है ।
(क्रमशः)

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