बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

= १३३ =

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द्वितीय भाग : शब्दभाग(उत्तरार्ध)
राग केदार ६( गायन समय संध्या ६ से ९ बजे)
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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१३३. मन उपदेश । पंचम ताल ~
हां, हमारे जियरा ! राम गुण गाइ,
एही वचन विचारी मान ॥टेक॥
केती कहूँ मन कारणैं,
तूँ छाड़ि रे अभिमान ।
कह समझाऊँ बेर - बेर,
तुझ अजहुँ न आवै ज्ञान ॥१॥
ऐसा संग कहाँ पाइये,
गुण गावत आवै तान ।
चरणों सौं चित राखिये,
निसदिन हरि को ध्यान ॥२॥
वे भी लेखा देहिंगे,
आप कहावैं खान ।
जन दादू रे गुण गाइये,
पूरण है निर्वाण ॥३॥
टीका ~ ब्रह्मऋषि सतगुरुदेव, इसमें मन के प्रति उपदेश करते हैं कि हे हमारे मन रूप जीव ! अब तो तूँ राम - नाम का स्मरण कर । इस हमारे वचन को तू विचार करके, धारण कर ।
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हे मन ! तेरे कल्याण के लिये हम कितना कहें । अब तो तू इस अनात्म - अहंकार का त्याग कर । तेरे को पुनः पुनः कह - कह कर परमेश्‍वर प्राप्ति का मार्ग, समझाते हैं, परन्तु अभी तक तुझे यह ज्ञान प्रिय नहीं लगता है । विचार कर ।
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ऐसे मनुष्य देह का संग फिर तुझे कहाँ मिलेगा ? परमेश्‍वर का इसमें गुणगान करने से, प्रेमरूप आनन्द उत्पन्न होता है । हे मन ! अब तो तूँ रात - दिन ध्यान अपने आपका हरि चरणों में रख, क्योंकि..
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जो अपने आप को खान सुलतान कहलाते हैं, वे भी परमेश्‍वर को लेखा - हिसाब देंगे । इसलिये हे मन ! काल - कर्म के बाण से रहित होना है तो उस परिपूर्ण व्यापक परमेश्‍वर के गुणानुवाद गा ।
(क्रमशः)

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