#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
मन ही जगत रूप होइ करि विस्तर्यो,
मन ही अलख रूप जगत सौं न्यारो है ।
मन ही सकल घट व्यापक अंखड एक,
मन ही सकल यह जगत पियारो है ॥
मन ही आकाशवत हाथ न परत कछु,
मन के न रूप रेख वृद्घ ही न बारो है ।
‘सुन्दर’ कहत परमारथ विचारै जब,
मन मिटि जाइ एक ब्रह्म निज सारो है ॥
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साभार : पँ. शिवप्रसाद त्रिपाठी 'आचार्य'
मत्स्यावतार -> महाराज सत्यव्रत मनु एक समय कृतमाला नदी मेँ स्नान करके तर्पण कर रहे थे । ऋषि तर्पण से बुद्धि शुद्ध होती है । भारत धर्मप्रधान देश है । ऋषियोँ का स्मरण करने से दिव्य संस्कार हमारे हृदय मेँ अवतीर्ण होते हैँ । आज शिक्षा मेँ धर्म का कोई स्थान ही नहीँ । जल तर्पण करते हुए महाराज मनु के हाथोँ मेँ एक मत्स्य आया । मनु ने उसे जल छोड़ दिया । मत्स्य ने कहा मैँ आपके हाथो मेँ आया हूँ आप मेरी रक्षा करेँ, क्योँकि नदी के बड़े जीव हमेँ खा जायेँगे । राजा ने उसे कमण्डल मेँ रखा किन्तु स्थान कम पड़ गया धीरे बढ़ता हुआ मत्स्य विशाल स्वरुप धारण करता गया ।
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हमारी वृत्ति ही मत्स्य है जो धीरे धीरे बढ़ती जाती है। किन्तु जब तक बृत्ति ब्रह्माकार नहीँ होती तब तक शान्ति नहीँ मिलती है । मेरापन - अहम् एक ही स्थान पर नहीं रह सकता । मन के आवरण को तोड़ने के लिए ब्रह्माकारवृत्ति आवश्यक है । इस जीव के हृदय में ईश्वर रहते हैँ ।
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दीपक के प्रकाश मेँ चाहे कोई भागवत पाठ करे या चोरी । दीपक के मन मे न तो किसी के प्रति सुभाव होगा न तो कुभाव । दीपक का धर्म तो एक ही है प्रकाशित होना, प्रकाश देना । प्रकाश का किसी के कर्म के साथ कोई सम्बन्ध नही है "ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति ।" परमात्मा सभी के हृदय मे बस कर दीपक की भाँति प्रकाश देते हैं । जीव के पाप या पुण्य कर्म का साक्षीभूत परमात्मा पर कोई प्रभाव नहीँ पड़ता ।
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ईश्वर न तो निष्ठुर है न दयालु । ईश्वर का अपना कोई धर्म नहीँ । ईश्वर आनन्दरुप हैँ , सर्वव्यापी हैँ । परमात्मा बुद्धि से परे है । ईश्वर ही बुद्धि को प्रकाशित करते हैं । ईश्वर को प्रकाश देने वाला कोई नहीँ है वह स्वयंप्रकाशी है । ईश्वर के सिवाय अन्य सभी परप्रकाशी है । ईश्वर का दीपक सा यह स्वरुप हमेँ प्रकाश देता है इस स्वरुप का अनुभव करने हेतु ज्ञानी पुरुष ब्रह्माकार वृत्ति धारण करते हैँ ।
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जब मन ईश्वर का सतत् चिन्तन करे, वृत्ति जब कृष्णाकार, ब्रह्माकार बने तभी मन को शान्ति मिलती है । ईश्वर को छोड़ कर मनोवृत्ति को जहाँ भी रखा जायेगा वह स्थान उसमेँ समा नहीं पायेगा ईश्वर के अतिरिक्त सभी कुछ अल्प है । अतः अन्य किसी भी वृत्ति प्रवृत्ति मेँ मनोवृत्ति को शान्ति नही मिलेगी जब वृत्ति कृष्णाकार, ब्रह्माकार, भगवतस्वरुप बनेगी तभी आनन्द की प्राप्ति होगी । सत्यनिष्ठ जीव ही सत्यव्रत मनु है ।
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कृतमाला के किनारे बसने का अर्थ है, सत्कर्म की परम्परा मेँ जीना । ऐसा होने पर ही सत्यव्रत जीवात्मा की वृत्ति ब्रह्माकार होती है । और भगवान मत्स्यनारायण उनके हाथ मेँ आते हैँ । ऐसे अधिकारी जीव को ही परमात्मा मिलते हैँ । प्रलय मेँ चाहे किसी भी वस्तु का नाश हो जाये किन्तु सत्यनिष्ठ का नाश भगवान नहीं होने देते अतः भगवान कहते हैँ - राजन् ! आज के सातवेँ दिन प्रलय होगा और सर्वनाश हो जायेगा तब तुम मेरा स्मरण करना मै तुम्हारी रक्षा करुँगा । जो सत्कर्म एव सत्यनिष्ठ भगवान की शरण मेँ जाता है भगवान जिसे अपनाते हैं उसका प्रलय मेँ भी नाश नहीँ होता है ।
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सातवेँ दिन प्रलय हुआ पृथ्वी जलमय हुइ तभी राजा को एक मछ्ली दिखायी दी जिसकी सीँग मेँ नाव को बाँध दिया और जल में घूमते रहे । "शरीर नौका है, प्रभू के चरण सीँग है इस शरीर को परमात्मा के चरणोँ मे बाँध देना चाहिए ।"
आदि मत्स्यनारायण की स्तुति को महात्माओँ ने गुरुष्ट ही कहा है जो भी मत्स्यनारायण की कथा को पढ़ता है या सुनता है और चिन्तन मनन करता है उसके सभी संकट नष्ट हो जाते हैँ ...

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